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मिलता । उनके पूर्व जन्म के पिता चमरेन्द्र वहां आकर उनकी पीड़ा कम करने की चेष्टा करते । सचमुच सन्तान के प्रति जो स्नेह है वह बहुत प्रगाढ़ होता है । अनन्तवीर्य पूर्ण मुक्ति के अभिलाषी होकर अवधिज्ञान द्वारा पूर्व कर्म स्मरण कर उस पीड़ा को सहन करते । ( श्लोक ३९८ - ४०२ )
भाई की मृत्यु से शोकातुर बने बलभद्र ने समग्र राज्य अनन्तवीर्य के पुत्र को देकर गणधर जलन्धर से दीक्षा ग्रहण कर ली । सोलह हजार राजाओं ने उनका अनुसरण किया। क्योंकि महत् लोगों के साथ रहने से महत् पद ही प्राप्त होता है ।
( श्लोक ४०३ - ४०४) दीर्घकाल तक व्रतों का अनुष्ठान और परिषदों को सहन करते हुए बलभद्र ने अन्तिम समय में अनशन ग्रहण किया । मृत्यु के पश्चात् वे अच्युत देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए । ( श्लोक ४०५ )
निकाचित कर्मों का फल भोगकर अनन्तवीर्य का जीव अग्नि दग्ध होकर जैसे सुवर्ण परिशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार परिशुद्ध होकर नरक से निकला । इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी पर गगनवल्लभपुर के विद्याधर राजा मेघवाहन के औरस से रानी मेघमालिनी के गर्भ से मेघनाद नामक पुत्र रूप में जन्मे । यौवन प्राप्त होने पर मेघवाहन ने उन्हें राज्यभार देकर परजन्म सफल करने के लिए दीक्षा ग्रहण कर ली । मेघनाद क्रमशः बैताढ्य पर्वत की उभय श्रेणियों का आधिपत्य लाभ कर स्वर्ग और मृत्यु के एक सूर्य रूप हो गए । ( श्लोक ४०६-४१० ) एक समय उन्होंने अपने राज्य को एक सौ दस भागों में विभक्त कर स्वपुत्रों को वह राज्य बांट दिया । तदनन्तर प्रज्ञप्ति विद्या के बल से मन्दार पर्वत पर गए। वहां नन्दनवन के शाश्वत जिनेश्वरों की पूजा की । उसी समय स्वर्ग से देव वहां उतरे | अच्युतेन्द्र ने जब उन्हें वहां देखा तो पूर्वजन्म के भ्रातृ स्नेह के कारण उन्हें गुरु की भांति उपदेश दिया- 'संसार परित्याग करो।' मानो उनकी इच्छा पूर्णरूप धारण कर आई हो इस प्रकार उसी समय वहां महामुनि उमरगुरु उतरे । मेघनाद ने उनसे दीक्षा ग्रहण की और अतिचार रहित संयम एवं तपानुष्ठान करने लगे । (श्लोक ४११-४१५)