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[५५ ऐसा कहकर शक्र पत्नी स्व-विमान में बैठकर विद्यु त झलक जैसे आकाश को उद्भासित करती है उसी प्रकार आकाश को उद्भासित कर चली गई।
(श्लोक ३८६) __ उसकी बातों को सुनकर सुमति को पूर्व जन्म स्मरण होने से मानो संसार भय से भीत होकर ही वह मूच्छित होकर गिर पड़ी। चन्दन जल से सिक्त करने पर और पंखों की हवा से उसका ज्ञान लौटा और वह निद्रा टूट जाने पर उठ खड़ी हुई। तब वह करबद्ध होकर राजाओं एवं विद्याधरकुमारों से बोली-'हे महात्मनगण, पूर्वजन्म स्मरण हो जाने के कारण मेरा आपसे एक निवेदन है-आप सब मेरे लिए आमंत्रित होकर यहाँ आए हैं। इसके लिए मुझे क्षमा करें। संसार भ्रमण का अन्त करने में औषधि रूप अब मैं साध्वी दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं।'
(श्लोक ३८७-३९०) राजाओं ने प्रत्युत्तर दिया-'हे निर्दोषा, हम तुम्हें क्षमा करते हैं । तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो ।'
(श्लोक ३९१) वासुदेव और बलदेव ने बड़ी ही धूमधाम से उसका महाभिनिष्क्रमण महोत्सव सम्पन्न किया। उस उत्सव में शक्र और कुबेर पत्नियां आयीं और उसे सम्बोधित किया। कारण, ऐसे व्यक्ति तो इन्द्र के द्वारा भी सम्मानित होते हैं। सात सौ सहचारियों सहित सुमति ने आर्य सुव्रत से मुक्ति की सरिता-सी श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। तदुपरान्त अन्तर और बाह्य संयम पालन कर नानाविध तपों का अनुष्ठान किया। मुक्ति के लिए उन्मुख वह आत्मरूप कमल में भ्रमर की भांति लीन हो गई। कुछ काल के उपरान्त कर्म क्षय के सोपानों पर आरूढ़ होकर उसने मुक्ति रूपी श्री के दूतरूप केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। अन्ततः बहुत से भव्य जीवों को उबुद्ध कर तथा अघाती कर्मों को क्षय कर सिद्ध लोक प्राप्त किया।
(श्लोक ३९२-३९७) ___ अपराजित और अनन्तवीर्य सम्यक्त्व के अधिकारी बनकर अश्विनीकुमारों की तरह राज्य शासन करने लगे। चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य शेष होने पर निकाचित कर्मों के कारण वासुदेव मरकर प्रथम नरक में गए। नारक के रूप में उन्होंने बयालीस हजार वर्षों तक नानाविध यातनाएँ भोगी क्योंकि कुत कर्मों से छुटकारा नहीं