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विद्याभ्यास किया और तरुण अवस्था पाई। अवकाश के दिन आनन्द मनाने के लिए हम एक पर्वत पर गईं। वनदेवियों की तरह हम मधुर फल और सुगन्धित पुष्पों का आहरण करते हुए इधरउधर घूमने लगीं। इसी प्रकार घूमते हुए हमने एक शान्त स्थान पर मुनि नन्दनगिरि को देखा। उन्हें देखकर हमने तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दन किया। मुनि ने हमें धर्मलाभ देकर चित्तप्रसन्नकारी देशना दी। देशना सुनने के पश्चात् हमने करबद्ध होकर निवेदन किया-'यदि हम भव्य जीव हैं तो हमें उपदेश दीजिए।' हमें भव्य जीव जानकर मुनिश्री ने द्वादशांगी धर्म का उपदेश दिया। हम मुनिवर को पुनः वन्दना कर स्वगृह लौट गईं और सतर्कतापूर्वक द्वादशांगी धर्म का पालन करने लगी। (श्लोक ३६२-३७३)
_ 'एक दिन हम कौतूहलवश क्रीड़ा-वापी, सरिता, पर्वत और विविध वृक्षों से सम्पन्न अशोक वन में गईं। जब हम नदी तट पर खेल रही थीं। त्रिपुरपति वीरांग नामक एक खेचर ने हमारा अपहरण कर लिया। उसकी पत्नी वज्रश्यामलिका ने सिंह के हाथ से दो हरिणियों की तरह वीरांग के हाथों से हमें मुक्त किया। मुक्त होते ही शापभ्रष्टा दो देवियों की तरह हम आकाश से कीचक वन के एक नदी तट पर आ गिरी। इस दुर्घटना में अपनी मृत्यु सन्निकट जानकर हमने अनशन लेकर नवकार मन्त्र की आराधना करते हुए शुद्ध ध्यान में देह त्याग किया। मृत्यु के पश्चात् मैं सौधर्मपति की पट्टरानी नवमिका के रूप में उत्पन्न हुई और तुम धनद कुबेर की मुख्य रानी के रूप में। वहाँ से च्यवकर तुम बलभद्र की कन्या सुमति बनी। उसी समय हमने एक दूसरे को वचन दिया था कि जो भी हम में से पहले मृत्युलोक में जन्म ग्रहण करे उसे अर्हत धर्म का उपदेश देने के लिए दूसरा आए। वह स्मरण कर मैं तुम्हें अर्हत् धर्म का उपदेश देने आई हूं। इस संसार-सागर को अतिक्रम करने में अर्हत् धर्म ही नौका रूप है। पूर्व जन्म में किए नन्दीश्वर द्वीप में शाश्वत अर्हतों का अष्टाह्निका उत्सव स्मरण करो। जीवन्त अर्हत् की स्नात्र पूजा और उनके उपदेशों को स्मरण करो। दूसरे जन्म की निद्रा में तुम यह सब क्यों भूल रही हो ? अतः मनुष्य जन्म के फलस्वरूप देवताओं को भी अलभ्य मुक्ति की मित्ररूपा साध्वी दीक्षा ग्रहण करो।
(श्लोक ३७४-३८५)