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[५३ की तरह सुन्दर थे ऐसे राजागण और विद्याधरपुत्रे उस सिंहासने पर आकर बैठ गए। दिव्य वस्त्रों का परिधान कर रत्नजडिते अलङ्कार पहन कर दिव्य गन्ध से चित होकर बलभद्र की कन्या सुमति उस सभा-मण्डप में उपस्थित हुई। एक परिचारिका ने चन्द्रसा शुभ्र छत्र उसके मस्तक पर धाहण कर रखा था । स्वर्णदण्ड लिए द्वार-रक्षिकाएँ उसे पथ दिखा रही थीं। सखियां उसका अनुसे रण कर रही थीं। एक सखी वरमाला लिए उसके साथ-साथ चल रही थी। सूमति को देखकर लग रहा था मानो लक्ष्मी अभी-अभी समुद्र से उत्पन्न हुई है और उपस्थित विद्याधर और राजन्य वर्ग देवता हैं।
(श्लोक ३४२-३५२) हरिणनयनी सुमति ने अपनी स्निग्ध दृष्टि से चारों ओर देखा तो लगा मानो नील पद्मकलिका उसने चारों जोर बिखरा दी हैं । ठीक उसी समय एक रत्नों से रचा देव विमान जिसके स्तम्भ मणि-मुक्ता से जड़े हुए थे आकाश से उतरा और सभामण्डप परे सूर्य-मण्डल की भांति स्थित हो गया। उस विमान में रत्नजड़ित सिंहासन पर एक देवी बैठी थी। सुमति, राजन्यवर्ग और विद्याधर कुमार विस्मय विस्फारित नेत्रों से उस ओर देखने लगे। वह देवी विमान से उतरी और सभा-मण्डप में रखे एक सिंहासन पर जा बैठी । तदुपरान्त दाहिना हाथ उठाकर सुमति से बोली :
(श्लोक ३५३-३५८) __ 'धनश्री जागो, जागो ! अपने पूर्व जन्म की कथा स्मरण करो। पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्व भरत में श्रीनन्दनपुर नामक एक समृद्ध
और विस्तृत नगर है। बहाँ महेन्द्र-से महेन्द्र नामक एक राजा राज्य करते थे। वे शरण में आए हुए को दिन रात रक्षा करते थे। उनकी प्राणों से भी अधिक प्रिय रानी का नाम था अनन्तमति । वह मानो सभी गुणों की प्रतिरूप थी।
(श्लोक ३५८-३६१) 'एक दिन जब वह सुख शय्या पर सोई हुई थी तब रात्रि के शेष प्रहर में एक स्वप्न में दो सुगन्धित पुष्प मालाओं को अपनी गोद में देखा। जब उसने राजा को अपना स्वप्न सुनाया तब वे बोले, तुम्हारे सर्वगुणसम्न्ना दो पुत्रियाँ होंगी। यथा समय दो कन्याएँ हुईं, बड़ी मैं थी, मेरा नाम था कनकधी । तुम छोटी थी तुम्हारा नाम था धनश्री। परस्पर एक दूसरे से प्रेम करते हुए हमने