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कनकवी ने अनन्तवीर्य से विदा ली । अनन्तवीर्य ने उसका दीक्षामहोत्सव बहुत धूमधाम से मनाया । कनकश्री ने स्वयंप्रभ जिन से दीक्षित होकर एकावली, मुक्तावली, कनकावली, भद्र, सर्वतोभद्र आदि तप किए । तदुपरान्त एक दिन शुक्ल ध्यान की अग्नि में घाती कर्मों को दग्ध कर केवल ज्ञान प्राप्त किया । क्रमशः भवोपग्रही कर्मों को भी क्षय कर कनकश्री ने उस लोक को प्राप्त किया जहां जाकर प्रत्यावर्तन नहीं होता । (श्लोक ३२८-३३३) वासुदेव और बलदेव देवों से सुखों का भोग करते हुए समय व्यतीत करने लगे । बलदेव की एक पत्नी का नाम था विरता । उसके गर्भ से सुमति नामक एक कन्या उत्पन्न हुई । बाल्यकाल से ही वह जिनोपदिष्ट धर्म का पालन करती थी । वह जीवादि तत्त्वों की जैसी ज्ञाता थी उसी प्रकार विभिन्न तप भी करती थी । श्रावक के बारह व्रतों का पालन कर गुरु और अर्हतों की पूजा में वह समय व्यतीत करती थी । ( श्लोक ३३४-३३७)
एक दिन उपवास कर पारणे के लिए बैठी थी कि दरवाजे पर एक मुनि उपस्थित हुए । उसने पात्र में रखे आहार को मानो तीन गुप्ति और पाँच समिति स्वयं उपस्थित हुई हों इस प्रकार उन्हें बहरा दिया। तब रत्न-वर्षादि पांच दिव्य प्रकट हुए। सचमुच सुपात्र को दिया दान करोड़ों गुणा होकर लौट आता है ! मुनि वहाँ से अन्यत्र चले गए | क्योंकि संसार से विरक्त मुनि हवा जिस प्रकार एक स्थान पर नहीं रहती उसी प्रकार कभी भी एक स्थान पर नहीं रहते । ( श्लोक ३३८-३४१) रत्न - वर्षा की बात सुनकर वासुदेव और बलदेव देखने आए, देखकर विस्मित हो गए । सुमति के लिए ही यह चमत्कार घटित हुआ है ऐसा सोचकर वे उसके लिए योग्य पति की चिन्ता करने लगे । अमात्य इहानन्द से परामर्श कर उन्होंने उसके लिए स्वयंवर सभा का आयोजन किया । वासुदेव की आज्ञा से विद्याधरराज और त्रिखण्ड भरत के राजागण स्वयंवर सभा में उपस्थित हुए । वासुदेव के अनुचरों ने एक हजार रत्न स्तम्भों वाले मंडप का निर्माण किया जो देखने में इन्द्रसभा-सा सुन्दर था । उस मण्डप में रत्न जड़ित सिंहासन स्थापित किए गए जो कि देखने में नागराज के सहस्र फणों की मणियों से लग रहे थे । वासुदेव के आदेश से सौन्दर्य में जो मीनकेतु