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हो जाता है । जब मैं दारिद्र्य के भय से भीत थी और मैंने तपश्चर्या की तब भी यदि मेरे मन में ऐसा सन्देह उपस्थित हो गया, हाय दुर्दैव कैसा है ! अब जब कि मैं सत्ता सम्पन्न हो गई हूं ओर सुखभोग कर रही हूं, तब तो क्या सन्देह से न जाने कैसे-कैसे पाप कर बैठूं । अतः अनुग्रह कर मुझे आदेश दीजिए मैं दीक्षा ग्रहण करू ँ । छल-प्रपंचमय जीवन रूपी राक्षस के भय से मैं भीत हूं ।'
( श्लोक ३१०-३१५) उसकी बात सुनकर वासुदेव और बलदेव विस्मित होकर बोले - 'गुरु कृपा से वह बिना बाधा के हो जाएगा; किन्तु उसके पूर्व हम शुभा नगरी जाएँगे ताकि तुम्हारा दीक्षा महोत्सव धूम-धाम से कर सकें ।' ( श्लोक ३१६-३१७) कनकवी के सहमत होने पर मुनि को वन्दना कर वे शुभा नगरी गए। वहां उन्होंने अनन्तवीर्य के पुत्र अनन्तसेन को दमितारि प्रेरित सेना से युद्ध करते पाया । कुत्तों से घिरे भालू की तरह दमितारि की सेना से घिरे अनन्तसेन को युद्ध करते देखकर बलदेव क्रोधित हो गए और हल लेकर उनकी ओर दौड़े। हवा में जैसे रूई उड़ जाती है वैसे ही उनका आक्रमण सहन न कर सकने के कारण दमितारि की सेना चतुर्दिक भाग गई । वासुदेव ने नगरी में प्रवेश किया । तदुपरान्त शुभ दिन देखकर राजाओं ने उन्हें अर्द्धचकी रूप में अभिषिक्त किया । ( श्लोक ३१८-३२३)
पृथ्वी पर विचरण करते हुए जिन स्वयंप्रभ एक दिन शुभा नगरी में आए। वहां उनके समवसरण की रचना हुई । द्वार-रक्षकों ने उनका आगमन संवाद अनन्तवीर्य को निवेदित किया - 'प्रभो, आपके सौभाग्य से स्वयंप्रभ नाथ यहां उपस्थित हुए हैं ।' अनन्तवीर्य ने द्वार - रक्षकों को साढ़े बारह करोड़ रौप्य मुद्राएँ दीं और अग्रज एवं कनकश्री सहित उन्हें वन्दना करने गए । स्वयंप्रभ स्वामी ने सभी समझ सके ऐसी भाषा में, जो मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ थे उन्हें आत्म कल्याणार्थ देशना दी । ( श्लोक ३२४ - ३२७ )
देशना के अन्त में कनकश्री उठकर खड़ी हो गई और बोली'मैं वासुदेव से विदा लेकर आपसे दीक्षित होऊँगी तब तक आप यहीं अवस्थान करें ।' तीर्थङ्कर स्वयंप्रभ बोले- 'शुभ कर्म में विलम्ब मत करो ।' तत्पश्चात् वासुदेव, बलदेव और कनकश्री घर लौट गए ।