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_ 'श्रीदत्ता बोली, 'भगवन्, मैं बड़ी दुर्भागिनी हूं। लगता है मैंने पूर्वजन्म में धर्माराधना नहीं की। ग्रीष्म काल के ताप तप्त पर्वत की तरह सर्वदा कठिन कर्मक्लिष्ट मेरे जीवन में आया । यह धर्मलाभ प्रथम वर्षा है। यद्यपि मैं भाग्यहीन इसके उपयुक्त नहीं हूं किन्तु ; आपका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं हो सकता । आप मुझे धर्म-उपदेश दें ताकि आगामी जन्म में मैं ऐसी भाग्यहीन बनकर जन्म न ल । हे शरण्य, आप जैसे शरणस्थल को प्राप्त कर मुझे इच्छित वस्तु क्यों न प्राप्त होगी?'
(श्लोक २६१-२६४) 'उसकी बात सुनकर एवं उसकी पात्रता जानकर मुनि ने उसे धर्म चक्रवाल तप करने को कहा। बोले, 'तुम गुरु एवं अर्हत् की उपासना करो। प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन उपवास और मध्य में ३, ७, ४ दिनों का उपवास करो। इस तपस्या के बल से जिस प्रकार मर्गी से अण्डा होना निश्चित है उसी प्रकार पुनः ऐसा जन्म नहीं होगा यह निश्चित है।'
(श्लोक २६५-२६७) ___'यह सुनकर मुनिराज की वन्दना कर वह स्वग्राम लौट गई और धर्म-चक्रवाल तप प्रारम्भ कर दिया। उस तपस्या के बल से पारने के दिन उसे वह मिष्टान्न प्राप्त होने लगा जिसकी कल्पना उसने स्वप्न में भी नहीं की थी। इससे उसका सौभाग्योदय सूचित हुआ। उसी समय में किसी धनाढय गृह में काम पा जाने के कारण दुगुना, तिगुना अर्थ प्राप्त करने लगी। साथ ही उत्तम वस्त्र भी मिलने लगे। इस भाँति कुछ अर्थ संचय हुआ। उससे उसने शक्ति के अनुसार देव और गुरु की पूजा की। एक दिन भयंकर तूफान में उसके घर की दीवाल टूट गई। वहाँ उसने बहुत सारी सुवर्ण मुद्राएँ देखीं। उन सुवर्ण मुद्राओं से उसने तपस्या के अन्त में मन्दिरों में पूजन किया और साधु-साध्वियों को उपयुक्त दान दिया। पारने के दिन उसी ग्राम के एक ऋषिपुत्र नामक मुनि आए जो एक मास के उपवासी थे। स्वयं को सौभाग्यवती समझकर उसने पारने के लिए शुद्ध आहार वहराया और वन्दना कर उन्हें अर्हत् धर्म का उपदेश देने को कहा। मुनि बोले-'कहीं भिक्षार्थ जाकर वहाँ उपदेश देना हमारा नियम नहीं है। यदि उपदेश सुनना चाहती हो तो मेरे लौट जाने के पश्चात् योग्य समय देखकर आना'-ऐसा कहकर वे लौट गए।
(श्लोक २६८-२७७)