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'ग्राम के लोग और श्रीदत्ता मुनि के पारने के पश्चात् जब वे ग्रन्थों का अध्ययन कर रहे थे, उन्हें वन्दना करने गए ।'
( श्लोक २७८ )
'मुनि ने भी मधुर कण्ठ से उन्हें उपदेश दिया'चौरासी लाख जीव-योनियों में भटकने के पश्चात् जीव अन्धे व्यक्ति के लक्ष्यस्थल पर पहुंचने की तरह मनुष्य देह प्राप्त करता है । जिनोपदिष्ट धर्म जो कि सहज ही प्राप्त नहीं होता, वह ग्रह नक्षत्र में जैसे चन्द्रमा श्रेष्ठ है वैसे ही संसार के समस्त धर्मों में श्रेष्ठ है । अतः सम्यक् दर्शन के पश्चात् ऐसा प्रयत्न करना उचित है जिसमें जीव संसार सागर अतिक्रम कर जाए ।' (श्लोक २७९ - २८२)
'श्रीदत्ता ने मुनि को प्रणाम कर सम्यक्त्व के साथ जिनोपदिष्ट धर्म ग्रहण किया । तदुपरान्त ग्रामवासियों के साथ लौट गई । कुछ दिनों तक तो उसने उस धर्म का पालन किया; किन्तु कर्मों के कारण उसके मन में सन्देह उत्पन्न हुआ कि जिन कथित धर्म का जो श्रेष्ठ फल है वह फल उसे मिलेगा या नहीं ? इस प्रकार गुरु उपदेश को प्राप्त करके भी सन्देह करने का फल प्राप्त हुए बिना नहीं रहता । ' ( श्लोक २८३ - २८७ )
'एक दिन जब वह सत्ययश मुनि को वन्दना करने जा रही थी तब आकाश में विमान में बैठे एक विद्याधर दम्पती को उसने देखा । उनके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उन्हीं के विषय में सोचती हुई वह घर लौटी । अपने सन्देह को व्यक्त किए बिना और उसके लिए पश्चाताप किए बिना उसकी मृत्यु हो गई । ( श्लोक २८८ - २८९ ) 'जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह के अलङ्कार रूप रमणीय नामक विजय में वैताढ्य नामक एक पर्वत है । वहाँ आनन्द के निवास रूप शिवमन्दिर नामक एक नगर था । वह नगर अमरों के नगर के अनुज रूप था । वहाँ कनकविजय नामक एक राजा राज्य करते थे । उनके चरण-कमलों की शक्तिशाली विद्याधर राजा भी पूजा करते थे। मैं उन्हीं का पुत्र कीर्तिधर हूं । मेरी माँ का नाम था वायुवेगा । मेरी मुख्य पत्नी का नाम था अनिलवेगा । एक दिन रात को जब वह सो रही थी उसने तीन स्वप्न देखे – कैलाश - सा एक श्वेत हस्ती, मेघ-सा गर्जनकारी एक सुन्दर वृषभ और रत्नकुम्भ-सा एक सुन्दर कलश । रात्रि के अन्त में उसने कमल से उद्भासित