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राजाओं ने उनसे कहा- 'यहाँ अनेक जिन मन्दिर हैं। इस पर्वत का उल्लंघन करना अर्हतों की अवहेलना है। उनका वन्दन-पूजन कर ही आप अग्रसर हों।'
(श्लोक २४३-२४६) वासुदेव और अन्यों ने विमान से उतरकर अर्हतों का पूजन किया। अर्हत प्रतिमाओं के दर्शन से उनका चित्त प्रसन्न हो गया।
(श्लोक २४७) जब वे कौतूहलवश पर्वत शृग का निरीक्षण कर रहे थे उन्होंने कीर्तिधर नामक एक मुनि को देखा जो कि एक वर्ष से भी अधिक समय से प्रतिमा धारण किए वहाँ अवस्थित थे। घाती कर्मों के क्षय हो जाने से उन्हें वहीं उसी मुहूर्त में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। फलतः देवों ने इस उपलक्ष में एक उत्सव का आयोजन किया। आनन्दमना अनन्तवीर्य एवं अन्य उन्हें तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दननमस्कार कर करबद्ध होकर उनके सम्मुख बैठ गए। केवली कीर्तिधर ने देशना दी। देशना के अन्त में कनकश्री ने पूछा, 'भगवन्, मेरे पिता की मृत्यु एवं मेरा स्वजन-विच्छेद क्यों हुआ ? कृपया बताएँ।' मुनि ने बताया
'धातकी खण्ड के पूर्व भारत में शंखपुर नामक एक नगर था। वहाँ श्रीदत्ता नामक एक गरीब स्त्री रहती थी। वह दूसरों के घर काम कर अपनी जीविका चलाती थी। उसे समस्त दिन बर्तन मांजना, कपड़े धोना, पानी भरना, झाड-बुहारी करना, गोबर लेपन आदि कार्य करने पड़ते थे। दिनभर की हाड़ तोड़ देने वाली खटनी करने के बाद उसे आहार मिलता। अतः उल्लू के दर्शन की भाँति उसका जीवन अमङ्गलमय था।
(श्लोक २४८-२५५) ___ 'एक दिन घूमते हुए वह मेरु पर्वत-से सुन्दर श्रीपर्वत पर आई। वहाँ उसने शिलासीन त्रिगुप्तिधारी परिषह सहन करने वाले, पाँच समिति का निर्वाह करने वाले तपःप्रवण निष्काम राग रहित एक मुनि को देखा। उनके लिए मिट्टी और सुवर्ण में कोई भेद नहीं था। वे पर्वत शिखर की तरह निश्चल होकर शुक्ल ध्यान में निमग्न थे। कल्पतरु-से उन मुनि को देखकर वह आनन्दित हुई और उन्हें वन्दना की। मुनि ने भी 'धर्मलाभ' कहकर उसे आशीर्वाद दिया जो कि मुक्तिरूप वृक्ष के दोहद-सा था ।
(श्लोक २५६-२६०)