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को स्मरण किया। समुद्र में वाडवाग्नि की भाँति सहस्र ज्वालाएँ फैलाता वह चक्र उसी मुहूर्त में उसके हाथ में आ गया।
- (श्लोक २२५-२३०) तब दमितारि बोला, 'दुरात्मन्, यदि तू युद्धभूमि में खड़ा रहा तो समझ ले तेरी मृत्यु निश्चित है । जा भाग जा। मेरी कन्या को मुक्त कर दे। मैं भी तुझे छोड़ दूंगा।' (श्लोक २३१-२३२)
अनन्तवीर्य ने उत्तर दिया, 'मैं तेरा चक्र, जीवन और तेरी कन्या को लेकर जाऊँगा, उसके पूर्व नहीं।' (श्लोक २३३)
___ यह सुनते ही अत्यन्त ऋद्ध हुए दमितारि ने अनन्तवीर्य पर चक्र निक्षेप किया। चक्रनाभि के आघात से अनन्तवीर्य चकित होकर गिर पड़े। अपराजित द्वारा वीजित होकर दूसरे ही क्षण वें इस प्रकार उठे कि मानो निद्रा से जागे हों। फिर अपने निकट स्थित हुए उस चक्र को उन्होंने ग्रहण किया-लगा जैसे चक्र के एक सौ आरे उनके हाथ में आते ही एक सहस्र हो गए। उस चक्र को हाथ में धारण कर वासुदेव प्रति-वासुदेव से बोले, 'तुम मुक्त हो, क्योंकि तुम कनकश्री के पिता हो। अब तुम जा सकते हो।'
(श्लोक २३४-२३६) दमितारि ने कहा, 'तूने चक्र को क्यों धारण कर रखा है ? मुझसे ही उधार लेकर मुझे ही आँखें दिखा रहा है ? चक्र निक्षेप कर, कर निक्षेप । चक्र निक्षेप कर अपनी शक्ति का परिचय दे। मेरी शक्ति का निरीक्षण कर, नहीं तो तू कापुरुष है।' (श्लोक २३७-२३८)
दमितारि के इन कटु वाक्यों से उत्तेजित बने अनन्तवीर्य ने चक्र निक्षेप किया। उस चक्र ने कमलनाल की भाँति दमितारि के मस्तक को काट डाला। देवों ने परितुष्ट होकर पंचवर्णीय पुष्पों की अनन्तवीर्य पर वर्षा की एवं विद्याधर राजाओं से बोले-'हे विद्याधर राजाओ! सुनें, अनन्तवीर्य वासुदेव हैं और अपराजित बलदेव । अब युद्ध से निवृत्त होकर आप उदीयमान सूर्य-चन्द्र-से इनकी सेवा करें।
(श्लोक २३९-२४२) तब सभी विद्याधर राजा मस्तक झुकाकर बलदेव और वासुदेव के निकट गए और उनकी शरण ग्रहण की। वासुदेव विद्याधर राजन्य, अग्रज और पत्नी सहित शुभा नगरी की ओर रवाना हो गए। जब वे कनक पर्वत के निकट आए तब विद्याधर