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प्रत्युत्तर में अनन्तवीर्य बोले- 'पिता के इस भाँति चिल्लाने से तुम क्यों डर रही हो? वह मेंढक की टर्र-टर्र से अधिक नहीं है। दमितारि और उसकी सेना को शक ने जैसे मैनाक को विनष्ट किया था उसी प्रकार हत या विनष्ट करता हूं।' (श्लोक २१२-२१६)
कनकश्री को इस प्रकार आश्वस्त कर वासुदेव अनन्तवीर्य सिंह की भाँति अपराजित सहित युद्ध क्षेत्र में अग्रसर हुए। जिस प्रकार दीपशिखा को पतंग घेर लेते हैं उसी प्रकार शत्र-घातक दमितारि के हजारों सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। तब मेरु-से दढ़ अनन्तवीर्य ने क्रोधित होकर विद्याबल से दमितारि की सेना से द्विगुणित सैन्य की सृष्टि की। अतः दमितारि की सेना उनसे युद्ध करने लगी। रक्तवर्णी धातु से पर्वत जिस प्रकार आरक्त लगने लगता है उसी भाँति रक्त के प्रवाह से उनके शरीर भी आरक्त दीखने लगे।
(श्लोक २१७-२२०) व्यन्तर देवियाँ आकाश में स्थित होकर कहने लगीं-'जिसका मुण्ड कट कर धड़ नत्य कर रहा है वह मेरा पति हो। शूलविद्ध होकर जो अग्रसर हो रहा है वह मेरा पति हो । युद्ध में प्रतियोद्धा की देह को जो रक्त-रंजित कर रहा है वह मेरे साथ कब (होली) खेलेगा? वह मेरा पति हो जिसके मुंह में दांतों के मध्य से वरछी प्रवेश कर रही है। वह मेरा पति हो जो हस्ती कुम्भ तक उन्नत हो रहा है और जो अस्त्र के नष्ट हो जाने पर शिरस्त्राण से ही युद्ध कर रहा है। वह मेरा पति हो जिसकी देह में हाथी का दाँत प्रविष्ट हो रहा है और जिसको खींच कर बाहर निकाला गया है।'
(श्लोक २२१-२२४) दमितारि की सेना विद्यालब्ध शक्ति से मस्त बनी युद्ध में भद्र जातीय हस्ती की भांति भंग नहीं हुई। तब वासुदेव ने युद्धाभिनय प्रदर्शनकारी नट की तरह पांचजन्य शंख बजाया जिसने स्वर्ग, मृत्यु एवं मध्यवर्ती आकाश तक को ध्वनि-पूरित कर डाला । जगतविजेता विष्णु की उस शंख ध्वनि से शत्रुसेना भूपतित हो गई और पक्षाघात हुए व्यक्ति की तरह उनके मुख से फेन निकलने लगे। तब दमितारि स्वयं रथ पर आरोहण कर दिव्यास्त्रों से अनन्तवीर्य के साथ युद्ध करने लगे। जब उसने देखा अनन्तवीर्य को सहज ही परास्त नहीं किया जा सकता तब दुदिन के अपने परम मित्र चक्र