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की इच्छा करे तो वे उसे यमलोक भेज देंगे । अतः तुम डरो मत ।' ( श्लोक १९६-१९७ ) अनन्तवीर्य द्वारा इस प्रकार आश्वासित होकर जो स्वयं भी महाशक्तिशाली हैं ऐसे अनन्तवीर्य के साथ जाने के लिए कनकश्री मानो दूसरी श्री हो इस भाँति प्रस्तुत हुईं । तब अनन्तवीर्य प्रासाद स्थित पताका की तरह अपना हाथ उठाकर वज्रघोष में बोले
'दुर्गाधिपति, सेनापति, मंत्री, राजपुत्र, सामन्त और सैनिकों एवं जो भी दमितारि के अनुगत हैं सुनें - मैं अनन्तवीर्य, अपराजित सहित दमितारि की कन्या को स्वगृह ले जा रहा हूं । कहीं बाद में आपलोग यह नहीं कहें कि मैं कनकश्री को चुरा कर ले गया । यदि कोई बाधा देना चाहते हैं तो अपनी शक्ति का परिमाप कर मुझे रोक सकते हैं ।' ( श्लोक १९८ - २०३ ) यह सुनकर दमितारि बोले - 'कौन है वह मृत्तिका का कीट, जो अपनी मृत्यु कामना कर रहा है ? उसने सैनिकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही उस नीच और उसके भाई का वध कर या बन्दी बनाकर मेरी कन्या को लौटा लाओ । वह अनिष्टकारी अपनी करनी का फल भोगे । ' ( श्लोक २०४ - २०६) ऐसा आदेश मिलते ही स्वभाव से ही क्रूरकर्मी सैनिक हाथी जैसे अपने दाँत ऊँचे कर दौड़ता है उसी प्रकार अपने अस्त्र-शस्त्र उठाकर उसकी ओर दौड़े। ठीक उसी समय हल, सारंग धनुष आदि दिव्य अस्त्र अपराजित और अनन्तवीर्यं को प्राप्त हुए । मेघ जैसे वारि वर्षण करता है उसी प्रकार दमितारि की सेना उन पर बाण बरसाने लगी; किन्तु दोनों नर-शार्दूलों ने क्रोधित होकर जब प्रतिआक्रमण किया तो वे हरिण की तरह काँपने लगे । जब दमितारि ने सुना उनकी सेना भाग रही है तो क्रुद्ध होकर वह स्वयं रणभूमि में आया । अस्त्र-शस्त्रों सह उसकी सेना आकाश में दीर्घ तरुयुक्त निकुज-सी लगने लगी । ( श्लोक २०७ - २११) 'अरे ओ दुरात्मा, युद्ध कर, खड़ा रह, यह आ गया मैं, चला अस्त्र । तेरी मृत्यु निश्चित है । लौटा दे मेरी कन्या को, मैं तुझे जीवनदान देता हूं' आदि आदि - पिता के ये कर्ण कटु शब्द जब कनकश्री के कानों में पड़े तो वह भयभीत होकर अनन्तवीर्य की दृष्टि आकृष्ट करने के लिए कहने लगी, 'स्वामिन् स्वामिन् ' -