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विमूढ़ता आदि नाना भावों के वशीभूत हो गई । अपराजित को ज्येष्ठ समझकर उसने उत्तरीय से मस्तक ढका । आकाश में मेघ छा जाने से कदम्ब जैसे रोमांचित हो जाता है उसी भाँति प्रेम के आविर्भाव से अनन्तवीर्य का समस्त शरीर सिहर गया । तब मृगनयनी कनकश्री लज्जा और गौरव दोनों का परित्याग कर अनन्तवीर्य से बोली
'आर्यपुत्र, कहाँ वैताढ्य पर्वत, कहाँ शुभानगरी । न जाने क्यों नारद ने पिताजी से आपकी क्रीतदासियों के अभिनय नैपुण्य का वर्णन किया । उन्होंने भी क्यों क्रीतदासियों को आपसे माँगने के लिए दूत भेजा । फिर क्रीतदासियों का रूप धारण कर आप यहाँ आए और पिताजी ने भी आप लोगों को मुझे अभिनय शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया । मुझ से आपके ज्येष्ठ भ्राता ने क्यों आपके रूप का वर्णन किया एवं इस भाँति अकस्मात् आप लोग भी क्यों निज रूप में मेरे सम्मुख प्रकट हुए। इस प्रकार सब कुछ अकल्पित ही घटित हुआ । यह सब हुआ मेरे सौभाग्य के लिए ही । जिस प्रकार अब तक आप मेरे अभिनय शिक्षक रहे अब मेरे पति हैं । अब यदि आप काम के हाथों से मेरी रक्षा नहीं करेंगे तो मेरी मृत्यु का कारण बनेंगे । आपके विषय में सुनने मात्र से ही मेरा हृदय आपका हो गया था । अब आप दया कर मेरा पाणिग्रहण करें । वैताढ्य पर्वत की उभय श्रेणियों में आप जैसा राजपुत्र न होने से मुझे लगता है अब तक मेरा जीवित रहना भी नहीं रहने के समान ही था । किन्तु ; भाग्योदय से जीवित रहने के लिए चन्द्र-से जीवन-दायक आपको मैंने प्राप्त कर लिया है । ' ( श्लोक १८१ - १९२)
अनन्तवीर्य बोले—‘शुभ्र े, यदि तुम्हारी यही इच्छा है तब हम शुभा नगरी चले । वहीं हमारा विवाह होगा ।' ( श्लोक १९३ ) कनकश्री ने कहा- 'आप मेरे पति हैं; किन्तु मेरे पिता विद्या के मद में मस्त होकर कहीं आपलोगों का कुछ अनिष्ट कर बैठे तो ? वे दुराचारी हैं और शक्तिशाली भी । आपलोग शक्तिशाली होने पर भी मात्र दो हैं, वह भी निरस्त ।' ( श्लोक १९४ - १९५) अनन्तवीर्य हँसते हुए बोले- 'भीरु मत बनो, भय का कोई कारण नहीं है । तुम्हारे पिता सैन्य सहित भी मेरे अकेले अग्रज के सन्मुख खड़े रहने में भी समर्थ नहीं होंगे । यदि कोई उनसे युद्ध