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४२] ऐसा बन्धु मिलना भी दुष्कर है जो मेरी इस इच्छा को पूर्ण करे ।
(श्लोक १६४-१६७) हाव-भाव से मानव मन की बात जानने में पट अपराजित उसका मनोभाव समझ कर बोले, 'शुभ्र', ऐसी मृतमना-सी क्यों हो गई हो? अपराजित के कनिष्ठ भ्राता के विषय में सुनकर लगता है तुम आहत हो गई हो ?'
(श्लोक १६८-१६९) अश्रुपूर्ण नेत्रों से कनकश्री हिमपात से जैसे कमल म्रियमाण हो जाता है उसी भाँति म्रियमाण होकर दुःखार्त स्वर में अस्फुट शब्दों में बोली, 'हाथों से चाँद स्पर्श करने की भाँति, पैरों से आकाश पर चलने की भाँति, हाथों की सहायता से समुद्र उत्तरण की भाँति मेरी इच्छा उन्हें देखने की हो गई है। क्या मैं शुभापति को अपनी आँखों के सामने देख सकूँगी?'
(श्लोक १७०-१७२) अपराजित बोले, 'यदि तुम्हारी इच्छा उन्हें देखने की है तो मैं तुम्हें उन्हें दिखाऊँगा। इसके लिए विषण्ण मत बनो। मैं अपने मन्त्र बल से अनन्तवीर्य और अपराजित को उसी भाँति यहाँ लाकर उपस्थित कर सकती हूं जिस प्रकार बसन्त और मलय पवन एक साथ उपस्थित होते हैं।'
(श्लोक १७३-१७४) कनकधी बोली-'उन दोनों गुणों के सागर के पास रहने के कारण आपके लिए सभी कुछ सम्भव है । आप जब इस प्रकार बोल रही हैं तो लगता है भाग्य मुझ पर प्रसन्न है। लगता है हमारी कुल देवी आपके कण्ठ में अवतरित हो गई हैं। आप जब विद्या जानती हैं तो जो कुछ कहा है वह तत्काल सत्य करिए। क्योंकि जो ऐसे व्यक्तियों के पास रहता है वह कभी झूठ बोल नहीं सकता।'
__(श्लोक १७५-१७७) तब अपराजित और अनन्तवीर्य ने आनन्दित होकर मानो सौन्दर्य और प्रेम हो इस प्रकार स्व-स्वरूप को प्रकट किया। अपराजित बोले, 'शुभ्र', मैंने तुमको जैसा बताया था कहो मेरा भाई अनन्तवीर्य वैसा है या नहीं ? मैंने इसके सौन्दर्य का जो वर्णन किया था वह तो कुछ भी नहीं था। वाणी द्वारा वह कहा भी नहीं जा सकता था। अब तो उसे मैंने तुम्हारे नेत्रों के सम्मुख उपस्थित किया है। देखो-'
(श्लोक १७८-१८०) उन्हें देख कर कनकधी एक साथ विस्मय, लज्जा, प्रमोद,