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[४१ लावण्य जल में निमज्जित थी। उसकी वाणी मधुर और शरीर शिरीष-सा कोमल था। क्रीतदासी रूप अनन्तवीर्य ने उसे बार-बार देखा और मोहित हो गया। वे उसे अभिनय, उपस्थापना, सन्धि, अनुसन्धि आदि की शिक्षा देने लगे। (श्लोक १४६-१५२)
इस शिक्षा के मध्य-मध्य वे दीर्घबाहु अनन्तवीर्य का रूप, गुण और साहसिकता का वर्णन उसके सन्मुख करते । एक दिन कनकश्री ने पूछा, 'आप जिसके रूप, गुण, आदि का गुणगान कर रहे हैं वह महामानव कौन हैं ?' क्रीतदासी रूपी अपराजित ने तब हँसकर कहा, 'हे सुन्दरी, इस भरतार्द्ध में शुभा नामक एक वृहद् नगरी है। गुणों में समुद्र-से और तेज में सूर्य सम स्तिमितसागर वहाँ के राजा थे। उनके अपराजित नामक ज्येष्ठ पुत्र हैं। वे जैसे सुशिक्षित हैं वैसे ही शत्रु से अपराजित हैं। अनन्तवीर्य नामक उनके एक छोटा भाई है । गुणों में वह उनसे कम नहीं है और रूप में तो कामदेव तुल्य और शत्रु के गर्व को नष्ट करने वाले हैं। उनके बाहु नागराज की भाँति दीर्घ, वक्ष पर्वतशिला-सा विस्तृत है। वे श्री के निवास रूप पृथ्वी के धारक हैं। अनुयायी रूप कमल के लिए सूर्य-से और व्यवहार में क्षीरसमुद्र तुल्य हैं। मेरे जैसा अल्पमति उनका क्या वर्णन, करेगा ? देवता, असुर और मनुष्यों में कोई ऐसा नहीं जो उनके समकक्ष होगा।'
(श्लोक १५३-१६१) यह सब सुनकर कनकश्री के हृदय में उसी प्रकार वासना की तरंगें उठने लगी जिस प्रकार सरोवर में वायु से तरंगें उठती हैं। उसे लगा जैसे वह उन्हें प्रत्यक्ष देख रही हो। वह मदन से शराहत होकर भावना की गम्भीरता में डूबने लगी। देह रोमांचित हो गई। वह स्वयं मानो पुत्तलिका-सी हो गई। (श्लोक १६२-१६३)
कनकश्री मन ही मन सोचने लगी वह राज्य धन्य है, वह नगरी धन्य है, उस राज्य के अधिवासी धन्य हैं। उस राज्य की पुर-ललनाएँ भी धन्य हैं जिस नगरी के राजा अनन्तवीर्य हैं। चन्द्र दूर से ही रात्रि में प्रस्फुटित कुमुदिनी को आनन्दित करता है। मेघ, आकाश में रहते हुए भी मयूर को नृत्य करने की प्रेरणा देता है। भाग्यशाली होने के कारण इनके लिए यह सम्भव हुआ है । किन्तु; मेरे लिए ? मेरे और उनके भाग्य में क्या है ? उनका मेरा स्वामी होना तो दूर उन्हें एक बार देख भी किस प्रकार सक।