________________
[२९
प्रति वर्ष श्रीविजय और अमिततेज जिन-मन्दिर में तीन विशेष उत्सव करते थे । उन उत्सवों में दो उत्सव देवगण अष्टाह्निका उत्सव रूप में नन्दीश्वर द्वीप में जाकर एवं अन्यान्य अपने-अपने मन्दिर में चैत्र और आश्विन मास में करते थे; किन्तु श्रीविजय और अमिततेज इन दोनों उत्सवों के अतिरिक्त तृतीय अष्टा महोत्सव सीमन पर्वत पर भगवान ऋषभ देव के मन्दिर में करते जहाँ बलदेव अचल स्वामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था । ( श्लोक ४६० - ४६३) सूर्य जैसे सुमेरु पर्वत पर अवस्थान करता है उसी प्रकार एक दिन अमिततेज मंत्रियों से परिवृत होकर अपने प्रासाद में अवस्थित थे। जिन धर्म जिन्हें अति प्रिय है ऐसे उन्होंने एक मास के उपवासी एक मुनि को भिक्षा के लिए वहाँ आते देखा । ग्रीष्मकाल में नाले का जल और कीचड़ जैसे सूख जाता है उसी प्रकार तपस्या के कारण उनकी देह का रक्त मांस सूख गया था । उनके देह की शिराएँ इस भाँति दिखाई पड़ रही थीं जैसे तरंग सहित समुद्र हो । उनका अस्थि समूह बाँस के पुराने घर की तरह चड़मड़ कर रहा था । यद्यपि उनका उदर शुष्क था, छाती की हड्डियाँ निकल गई थी, फिर भी वे भय उत्पन्न नहीं कर रहे थे | बल्कि उनकी देह से तपस्या की युति विच्छुरित हो रही थी मानों वे धर्म रूप दर्पण हों । अमिततेज उनकी अभ्यर्थना करने के लिए उठ खड़े हुए और तीन परिक्रमा देकर वन्दना के पश्चात् शुद्ध आहार बहराया । सत्पात्र को दान देने के कारण उसी समय पाँच दिव्य प्रकटित हुए । इस प्रकार सद् कार्यों में श्रीविजय और अमिततेज ने कई हजार वर्ष व्यतीत किए । ( श्लोक ४६४ - ४७१)
एक बार श्रीविजय और अमिततेज शाश्वत जिन प्रतिमाओं के पूजन के लिए एक साथ नन्दन वन में गए। वहाँ पूजा करने के पश्चात् औत्सुक्यवशतः दोनों नन्दन वन देखने के लिए इधर-उधर घूमने लगे। तभी उन्होंने स्वर्ण शिला के उपर विपुलमति और महामति नामक दो चारण मुनियों को खड़े देखा । जब उन्होंने परिक्रमा देकर वन्दना की तब उन्होंने यह उपदेश दिया
( श्लोक ४७२-४७५) 'मृत्यु सर्वदा मनुष्य के पीछे लगी रहती है । इसीलिए उसका