________________
३०]
जीवन कसाई खाना स्थित जीव की भाँति स्वल्पकालीन होता है । क्षणप्रभा की दीप्ति की तरह ही मनुष्य की जीवनप्रभा है यह जानकर भी मनुष्य धर्म के लिए प्रयास नहीं करता। हाय, यह कैसा मोह है ! जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त यह मोह ही मनुष्य का प्रधान शत्रु है जो कल्याणकारी धर्म की जड़ को ही काट डालता है। मनुष्य-जन्म के फल को प्राप्त करने के लिए मोह परित्याग कर धर्म आचरण करना उचित है कारण पुनः मनुष्य जन्म पाना महा दुष्कर है।'
(श्लोक ४७६-४७९) यह सुनकर उन्होंने मुनियों से जिज्ञासा की- 'भगवन, हमारा आयुष्य और कितना है ? मुनियों ने उत्तर दिया-'मात्र छब्बीस दिन ।' चारण मुनियों का कथन कभी मिथ्या नहीं होता यह वे जानते थे। अतः मनुष्य और विद्याधरों के अधिपति वे संसार से विरक्त होकर इस प्रकार अनुताप करने लगे-'हम कितने प्रमादी हैं मानो हम सर्वदा सोए हुए ही थे, या मदिरा पान में उन्मत्त थे, या अभी तक बालक ही हैं या हम सतत मूच्छित थे या पक्षाघात से ग्रस्त थे। हाय ! हाय ! हमारा यह जन्म अरण्य में जूही फूल जैसे निष्फल हो जाता है उसी प्रकार निष्फल हो गया।'
(श्लोक ४८०-४८३)) तब दोनों चारण मुनि उन्हें प्रतिबोधित करते हुए बोले'अनुताप करने से कोई लाभ नहीं है। तुम्हारे मुनि धर्म ग्रहण करने का समय हो गया है। मृत्यु के पूर्व होने पर भी, मुनि धर्म प्रहण नाना प्रकार से कल्याण करता है। रात्रि शेष होने पर भी चन्द्र किरण जो रात्रि में विकसित होते हैं ऐसे कमलों को उल्लसित ही करता है।'
(श्लोक ४८४-४८५) इस प्रकार प्रतिबोधित होकर श्रीविजय और अमिततेज धर्म कार्य करने के लिए स्वराज्य लौट गए। उन्होंने मन्दिर में अन्तिम अष्टाह्निका महोत्सव किया एवं दरिद्र और असहायों को जिसने जो चाहा वह दान दिया। तदुपरान्त अपने पुत्रों को सिंहासन पर बैठाकर अभिनन्दन और जगनन्दन मुनियों के निकट दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्पश्चात् वे पादोपगमन उपवास में स्थित हो गए। उस समय श्रीविजय ने अपने पिता को स्मरण कर उनकी असाधारण ऋद्धि और अपनी सामान्य ऋद्धि को सोचते हुए यह निदान किया