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दीक्षा ग्रहण कर ली । अमिततेज, श्रीविजय, अश्वघोष आदि बलदेव को प्रणाम कर अपने-अपने निवास को लौट गए । ( श्लोक ४४२-४४५) श्री विजय और अमिततेज ने अर्हत् मन्दिरों में अष्टाह्निका उत्सव किया और शक एवं ईशानेन्द्र की तरह समृद्धिसम्पन्न होकर समय व्यतीत करने लगे । वे सदैव साधुओं को दोषहोन ग्रहण योग्य एवं अचित्त दान देकर अर्थ का सदुपयोग करने लगे । पूर्वी हवा और मेघ जैसे तापक्लिष्ट मनुष्य का ताप हरण करता है उसी प्रकार वे भी संसार क्लिष्ट मनुष्यों का दुःख, वेदना हरण करने
लगे । गुरु के सम्मुख आलोचित शास्त्रार्थों के गहन तथ्यों पर वे
दिन-रात चिन्तन-मनन करने लगे । विभीतक की छाया से भी मनुष्य जैसे दूर रहता है उसी प्रकार वे भी कुगुरुओं से दूर रहने लगे । कुमार्ग की भांति समस्त व्यसनों का उन्होंने परित्याग कर दिया । इस भांति समयोचित सुख भोग कर राज्य के लिए भी यथोचित समय देकर अपनी-अपनी राजधानी में रहते हुए भी सोचते जैसे वे एक ही स्थान पर रह रहे हैं । इसी प्रकार काल व्यतीत होता रहा । ( श्लोक ४४६ - ४५२)
एक दिन अमिततेज जिनालय में पौषध व्रत लेकर विद्याधरों को शास्त्र सुना रहे थे । उसी समय मन्दिर स्थित जिन-बिम्बों की वन्दना करने के लिए धर्म की दो भुजाओं से दो चारण मुनि वहां आकर उपस्थित हुए । उन्हें आते देखकर अमिततेज उन्हें सम्मान देने के लिए उठ खड़े हुए और उनकी वन्दना कर ईप्सित वस्तु को देखकर मनुष्य जैसे आनन्दित हो जाता है उसी प्रकार आनन्दित हो उठे । उन मुनिद्वय ने तीन बार जिनबिम्बों की प्रदक्षिणा देकर उनकी उपासना की । फिर वे अमिततेज से बोले - 'मरुभूमि में जल मिलने की भांति मनुष्य जन्म दुर्लभ है । जब वह मिला है तो उसे विवेकहीनता में खोना उचित नहीं है । जिन धर्म का अनादार करना किसी भी समय उचित नहीं है । जिन धर्म को छोड़कर कोई ऐसा कल्पवृक्ष नहीं है जो उनकी मनोकामना पूर्ण कर सके ।'
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( श्लोक ४५३ - ४५८ ) अदृश्य हो जाता
ऐसा कहकर बरसने के पश्चात् मेघ जैसे है उसी प्रकार वे दोनों दृष्टि को आनन्द देनेवाले आकाश पथ से अदृश्य हो गए । ( श्लोक ४५९ )