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मैंने जो आर्तध्यान किया उसके परिणाम स्वरूप जन्म जन्मान्तरों में न जाने कितनी बार मृत्यु का, छेदन-भेदन आदि का कष्ट मैंने अनुभव किया है। तदुपरान्त नीच कर्मों का स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाने से मैंने पूर्व भव में मनुष्य जन्म प्राप्त किया; किन्तु दुर्भाग्यवश उस भव में भी मैं जिन-धर्म के सम्पर्क में नहीं आ सका और अज्ञान तप के कारण सामान्य फलदायी एवं दुःखमय अवस्था प्राप्त की। हाय ! उस तप के पुरस्कार स्वरूप जो निदान किया था, उसके फल स्वरूप चमरचंचा नगर में विद्याधर राजा के रूप में जन्म ग्रहण किया। अब मेरी निदानसह तपस्या, अन्य की पत्नी का हरण, महाविद्या, महाज्वाला का भय, शुभसूचक रूप में समाप्ति को प्राप्त हुआ कारण सर्व दुःखहर आपको गुरु रूप में मैंने प्राप्त कर लिया है। अन्धा जिस प्रकार अपनी आँखों के सम्मुख रही चीजों को भी नहीं देख पाता उसी प्रकार मैंने भी जिन धर्म अवगत न होने के कारण कई जन्म व्यर्थ व्यतीत कर दिए । अब आप मेरी रक्षा करिए ताकि मैं एक मुहूर्त भी यति धर्म से रहित होकर व्यतीत न करूं। हे भगवन, शिष्य रूप में अब आप मुझे अपने चरणों में स्थान दोजिए।' 'जैसी तुम्हारी अभिरुचि'- कहकर मुनि अचल ने उसे आश्वासन दिया।
(श्लोक ४२६-४३७) फिर वह अमिततेज के पास जाकर विनीत भाव से बोला'यद्यपि मैं अभिमानी हं फिर भी आप से यह कहने में मुझे जरा भी लज्जा नहीं है कि आपके पितामह ज्वलनजटि कर्म दहन में दीप शिखा रूप थे । उनकी धर्म विजय नेत्रों के सम्मुख जाज्वल्यमान है । आपके पिता यशस्वी और भाग्यवान अर्ककीति हैं जो तृणवत् राजसत्ता का परित्याग कर तपस्या के आभा मण्डल से युक्त सूर्य की भाँति देदीप्यमान हो गए हैं और आप स्वयं भावी चक्रवर्ती और अर्हत् हैं । मेरा यह राज्य चमरचंचा मेरे अश्वघोषादि पुत्र और अन्य जो कुछ भी है वह समस्त मैं आप को समर्पण करता हूं। आप इसे अन्यथा न लें।'
(श्लोक ४३८-४४१) ऐसा कहकर उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अश्वघोष को जैसे वह अभी भी बालक है उनकी गोद में बैठा दिया। फिर अनेक राजन्यों सहित अचल स्वामी से दीक्षा ग्रहण कर ली। श्रीविजय की माँ स्वयंप्रभा भी वहाँ आयी और अचल स्वामी के पद प्रान्तों में बैठकर