________________
२४]
पड़े मीन-सी, फन्दे में जकड़ी हस्तिनी-सी, मरुभूमि में आई हंसिनीसी, उपवासशीर्ण अत्यन्त दुःखी सुतारा को देखा। वह मंत्र की भाँति केवल अपने स्वामी का नाम जप रही थी। मरीचि अशनिघोष की माँ से बोला-मैं अमिततेज द्वारा आदेश पाकर देवी सुतारा को लेने आया हं। अशनिघोष की माँ तब सुतारा को लेकर अचल स्वामी के समवसरण में पहुंची। वहाँ उसने बन्धक रखी वस्तु की तरह निष्कलंक सुतारा को श्री विजय और अमिततेज को लौटा दिया। सुतारा बलदेव को वन्दना कर उनके आशीर्वाद से धन्य बनी-सी पर्षदा में यथास्थान जाकर बैठ गई। (श्लोक ३७३-३८०)
___ अशनिघोष ने मानव व विद्याधरराज श्रीविजय और अमिततेज से क्षमा-याचना की। उनका वैर शान्त हो गया । वह भी भी पर्षदा में जाकर यथा-स्थान बैठ गया। अचल स्वामी ने पवित्रकारी देशना दी। देशना शेष होने पर अशनिघोष ने करबद्ध होकर महामुनि अचल को प्रणाम किया और बोला
(श्लोक ३८१-३८३) 'भगवन्, मैंने सुतारा को उसके घर से निकृष्ट उद्देश्य से अपहरण नहीं किया था। हस्ती जैसे सरोवर में जाकर कमल तोड़ लाता है वैसे ही मैंने भी किया। मैं तो चमरचंचा से जयन्त मुनि के मन्दिर में गया था। वहाँ मैंने सात दिनों तक उपवास और मंत्र जाप कर भ्रामरी विद्या हस्तगत की। जब मैं वहाँ से लौट रहा था सुतारा और श्रीविजय को ज्योतिर्वन उद्यान में कीड़ारत देखा। उसे देखने से ही न जाने क्यों, जिसे मैं भाषा में व्यक्त भी नहीं कर सकता, ऐसा, प्रेम उसके प्रति मैंने अनुभव किया कि उस समय लगा जैसे मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकगा। मैं जानता था जब तक उसके पास पराक्रमी राजा श्री विजय रहेंगे मैं उसे शेषनाग के मस्तक पर रही मणि की भाँति प्राप्त नहीं कर सकूँगा। इसीलिए प्रतारिणी विद्या से श्रीविजय को प्रतारित कर बाज जैसे मुक्ता-माला उठा लेता है उसी प्रकार सूतारा को मैंने उठा लिया। वहाँ से लाकर उसे मेरी माँ के पास छोड़ दिया। चाँद में भी कलंक है; किन्तु देवी सुतारा में कोई कलङ्क नहीं है । मैंने उससे कोई अनुचित प्रस्ताव भी नहीं किया। भगवन्, मेरा उसके प्रति इस अकारण प्रेम का क्या कारण है ?' (श्लोक ३८४-३९३)