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तब भगवान् ने कपिल और सत्यभामा, श्रीसेन और उसकी दोनों पत्नियाँ अभिनन्दिता और शिखीनन्दिता के पूर्वभव की कहानी सुनाई। उन्होंने कहा - 'श्रीसेन और अभिनन्दिता, शिखीनन्दिता और सत्यभामा मृत्यु के पश्चात युगल रूप में उत्पन्न होते हैं । उस भव के पश्चात वे सौधर्म देव लोक में देवता रूप में उत्पन्न हुए । वहाँ से चयव कर श्रीसेन ने अमिततेज के रूप में जन्म ग्रहण किया है । शिखीनन्दिता का जीव उसकी पत्नी ज्योतिप्रभा हुई है । अभिनन्दिता का जीव राजा श्रीविजय के रूप में एवं सत्यभामा सुतारा के रूप में उत्पन्न हुई है । कपिल रूपी तुम्हारी मृत्यु आर्तध्यान में हुई । अतः तुमने बहुत-सी जीव योनियों में भ्रमण किया। बार-बार नरक और तिर्यंच योनियों में जन्म ग्रहण कर आर्तध्यान से संचित कर्म का स्वाभाविक भाव से क्षय हो जाने से ऐरावती तट पर भूतरत्न नामक अरण्य में तपस्वी जटिल कौशिक के औरस से पत्नी पवनवेगा के गर्भ से यम-यमिला के संयोग की तरह धर्मिल नामक पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । आश्रम तरु की तरह समस्त तापस पत्नियों के प्रिय होकर क्रमश: तुमने यौवन प्राप्त किया । ( श्लोक ३९४-४०२ )
'यौवन प्राप्त कर पिता से शैव दीक्षा लेकर तुम अज्ञान तप करने लगे । झरने के जल प्रपाप को पर्वत जैसे सह्य करता है उसी
ग्रीष्म के बीच में
प्रकार शीत की रात्रियों में भयंकर शीत में तल में छिद्र वाले कुम्भ की धारा को तुम सहन करते । दिनों में सिर पर सूर्य और चतुर्दिक प्रज्वलित अग्नि के बैठकर तुम पंचाग्नि तप करते । अपने हाथों से गर्त खनन कर उसमें वर्षा का जल भरकर आकण्ठ निमज्जित होकर तुम शिवमन्त्र का जाप करते । स्वयं खोदकर और अन्य के द्वारा खुदवाकर तुम कूप वापी सरोवर आदि का निर्माण करते । उस निर्माण में जलकायिक और पृथ्वीकायिक जिन जीवों की हिंसा होती उधर तुम्हारा ध्यान नहीं था । बालक की भाँति अज्ञानी तुम आश्रमवासियों के लिए घास और काष्ठ हँसुआ और कुल्हाड़ी से काटकर ले आते । अन्न के लिए खेती करते । इस प्रकार वनस्पति कायिक जीवों की हत्या होती । शीत निवारण के लिए और पथ दिखाने के लिए तुम अग्नि जलाते । इससे अग्निकायिक जीवों के साथ-साथ छोटे-छोटे कीट पतंगादि जो