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विद्युद्गति से उसकी पीठ पर जा बैठे । कभी सामने, कभी बगल में विभिन्न स्थानों से हटते हुए, कभी गण्डुकासनादि से स्वयं को बचाते हुए वे उस हाथी पर मुष्टि- प्रहार करने लगे । कभी-कभी कुम्भ पर थप्पड़ मारकर, कभी कानों पर घूसा लगाते हुए, कभी पीठ पर लात जमाकर उसे विवृत करने लगे । लोग आश्चर्य से उन्हें देखने लगे और वाह-वाह करने लगे । राजा ने उसके वीरत्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की । महावतों में अग्रगण्य वे युवराज पहले उस हाथी को अपनी इच्छानुसार चलाने लगे । फिर उससे खेल का प्रदर्शन करवाया मानो वह अब भी बच्चा ही है । फिर वे उस हाथी को चलाकर दूसरे हाथी के समीप ले गए और इस हाथी को उस हाथी के महावत के हाथ में देकर उस हाथी की पीठ पर पांव रख कर नीचे उतर आए । ( श्लोक ८१-८७ )
महापद्म के सौन्दर्य और शक्ति से राजा ने अनुमान लगाया, यह युवक निश्चय ही उच्चकुल जात है । अतः वे महापद्म को साथ लेकर राजमहल लौटे और अपनी एक सौ कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया । बहुत बड़े पुण्य से ही ऐसा वर घर बैठे प्राप्त होता है । यद्यपि महापद्म उन राजकन्याओं के साथ दिन-रात सुख भोग कर रहे थे फिर भी मदनावली की स्मृति उन्हें कांटे की तरह ध रही थी । ( श्लोक ८८ - ९० ) एक दिन जबकि वे हंस जैसे कमल पर सोया रहता है उसी प्रकार सुख- शय्या पर सो रहे थे तभी वेगवती नामक एक विद्याधरी वायु की भांति द्रुतगति से उनका अपहरण कर उन्हें ले जाने लगी । 'अरी, ओ मेरी नींद भंग करने वाली, तुम मुझे अपहरण कर कहां ले जा रही हो ?' कहते हुए कुमार ने अपनी वज्र की भांति कठोर मुष्टि उत्तोलित की । वेगवती बोली- 'हे बलशाली, क्रुद्ध मत होइए । शान्त होकर सुनिए । वैताढ्य पर्वत पर सुरोदय नामक एक नगर है । विद्याधरपति इन्द्रधनु वहां के राजा हैं । उनकी रानी का नाम श्रीकान्ता है । उनके जयचन्द्रा नामक एक कन्या है | उसके उपयुक्त वर न मिलने के कारण वह पुरुष विद्वेषिणी हो गई है। पति के बिना स्त्री जीवित ही मृत है । इसलिए मैंने भरतक्षेत्र के राजाओं का चित्र अंकित कर उसे दिखाया ; किन्तु उसने उनमें से किसी को पसन्द नहीं किया ।
( श्लोक ९१-९६)