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की तरह झाड़ फेंका। हवा भी मानो उसका स्पर्श नहीं कर रही है इस प्रकार द्रुतगति से वह वहां पहुंचा जहां नगरवासी क्रीड़ा कर रहे थे । महावत लोग दूर से कुछ भी नहीं कर सके । लड़कियां मारे भय के भाग भी नहीं सकीं। जहां खड़ी थीं वहीं स्तम्भित-सी मकर द्वारा आकृष्ट हंसनियाँ जिस प्रकार चीत्कार करती हैं उसी प्रकार चिल्लाने लगीं । उनका चीत्कार सुनकर महापद्म करुणा के वशीभूत होकर हाथी जिस ओर भागा उसी ओर दौड़े और उसकी भर्त्सना करते हुए बोले- 'अरे ओ मदोन्मत्त हाथी, तू इधर देख ।' वह क्रुद्ध हाथी पदाघात से विदीर्ण पृथ्वी को बारम्बार कम्पित करता हुआ महापद्म की ओर मुड़ा । तभी वे लड़कियां बोल उठीं— 'हमें बचाने के लिए किसी महामना ने यम के मुख में जाने की भांति स्वयं को हस्ती के सामने डाल दिया है ।' जैसे ही वह दुष्ट हाथी उनके सम्मुख आकर समीप खड़ा हुआ, उन्होंने अपना उत्तरीय उतार कर आकाश में उछाल दिया । कभी-कभी छलना भी लाभ - जनक हो जाती है । उनके उस उत्तरीय को ही मनुष्य समझकर हाथी उसको छिन्न-भिन्न करने लगा । क्रोध सभी को अधा कर देता है । फिर जब वह क्रोध एवं अहंकार से युक्त हो जाता है तब तो उसमें सौगुणी वृद्धि हो जाती है । ( श्लो ६५-७६ )
उच्च कोलाहल सुनकर तब तक उस नगर के लोग वहां आ पहुंचे । सामन्त और सेनापति से परिवृत्त महाराज महासेन भी वहां उपस्थित हो गए थे । महासेन ने महापद्म को पुकार कर कहा - 'हे साहसी युवक, शीघ्र वहां से भाग जाओ। इस क्रुद्ध हाथी द्वारा मृत्यु प्राप्त कर क्या लाभ ? ' महापद्म ने प्रत्युत्तर दिया - महाराज, यह आप कह सकते हैं; किन्तु मैंने जिस काम को हाथ में लिया है उसे बीच में ही छोड़ देना मेरे लिए लज्जास्पद है । आप देखें मैं किस प्रकार इस दुष्ट हाथी को वश में करता हूं । देखकर लगेगा मानो जन्म से लेकर आज तक वह कभी उन्मत्त हुआ ही नहीं । दया के वशीभूत आप भय को प्रश्रय मत दीजिए ।'
( श्लोक ७७-८० )
हाथी ने जैसे ही उस वस्त्र को छिन्न करने के लिए माथा नीचे किया, महापद्म ने उसी क्षण मुष्टि द्वारा उसके मस्तक पर वार किया । जब हाथी ने उन्हें पकड़ने के लिए माथा ऊँचा किया, वे