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'एक दिन मैंने उसे आपका चित्र अङ्कित कर दिखाया। आपका चित्र देखते ही वह काम के वशीभूत हो गई। पहले जो पुरुष विद्वेषिणी थी अब वह जीवन विद्वेषिणी हो गई है। कारण, पति रूप में आपको पाना बहुत कठिन है। वह मुझसे बोली'पद्मोत्तर के पुत्र महापद्म ही मेरे स्वामी होंगे । नहीं तो मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी।' जयचन्द्रा आपसे प्रेम करती है यह बात मैंने उसके माता-पिता से कही। उनकी कन्या ने उपयुक्त पात्र खोज लिया है, जानकर वे आनन्दित हुए। देव, मेरा नाम वेगवती है । महाविद्या की अधिकारिणी होने के कारण उन्होंने मुझे आपको लाने के लिए भेजा है। आपके प्रेम में पड़ी जयचन्द्रा को आश्वस्त करने के लिए मैंने कहा है, तुम्हारे हृदय कमल के लिए सूर्य समान महापद्म को या तो मैं लेकर आऊँगी नहीं तो अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी । तुम शान्त हो जाओ। इस प्रकार उसको शान्त कर मैं यहां आई हूं और उसके जीवन सुख के लिए अमृत रूप आपको वहां ले जा रही हं। आप मुझ पर दया करें। क्रुद्ध न हों।' महापद्म के सहमत होने पर वेगवती उन्हें अभियोगिक देव जिस गति से अपना रथ दौड़ाते हैं उस गति से सुरोदय नगर में ले गई। प्रभात का सूर्य जैसे पूजित होता है उसी भांति इन्द्रधनु द्वारा पूजित होकर महापदम ने चन्द्र ने जैसे रोहिणी से विवाह कर लिया था उसी प्रकार जयचन्द्रा से विवाह कर लिया।
(श्लोक ९७-१०६) जयचन्द्रा के अनेक विद्याओं के अधिकारी गंगाधर और महीधर नामक दो भाई थे। विद्या और स्वबल के अहंकार में मत्त जब उन्होंने इस विवाह की बात सुनी तो क्रुद्ध हो उठे। एक ही वस्तू को जब अनेक चाहने लगते हैं तब वह महायुद्ध का कारण हो जाती है। वे ओग अपनी सेना लेकर महापद्म के साथ युद्ध करने सुरोदय नगरी आए। असीम शक्ति के धारक महापद्म सामान्य विद्याधरों की सेना लेकर उनसे निश्छल युद्ध करने नगर परित्याग कर वहां पहुंचे। विपक्ष की सेना में किसी को भयभीत कर, किसी को आहत कर, किसी को पददलित कर सिंह जैसे हस्ती को पराजित करता है उसी प्रकार सहज ही उन्होंने उनकी सेना को हरा दिया। गंगाधर और महीधर ने जब अपनी सेना को पराजित होते देखा तब अपने प्राण बचा कर भागे ।
(श्लोक १०७-११२)