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को देखते ही वह कुपित होकर दूर भाग जाता; किन्तु इन्द्र बलपूर्वक उसको पकड़कर उस पर चढ़ते । कारण वे उसके स्वामी थे । तब उसने द्विमस्तक धारण किया । शक भी द्विमस्तक हो गए । ऐरावत जितने मस्तक बढ़ाने लगा । इन्द्र भी उतने ही मस्तक बढ़ाने लगे । पूर्व जन्म के वैर के कारण वह फिर भी भागने लगा । अन्ततः इन्द्र ने अपने वज्र द्वारा आहत कर उसे वश में किया ।
( श्लोक २२८ - २३६) केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ग्यारह मास कम साढ़े सात हजार वर्षों तक प्रभु सुव्रत स्वामी विचरण करते रहे । भगवान के संघ में ३०००० सांधु, ५०००० साध्वियां, ५०० चौदह पूर्वधारी, १८०० अवधिज्ञानी, १५०० मनःपर्यायज्ञानी, १८०० केवलज्ञानी, २००० वैक्रिय लब्धिधारी, १२००० वादी, १७२००० श्रावक और ३५०००० श्राविकाएँ थीं । (श्लोक २३७-२४२) निर्वाण काल निकट आने पर प्रभु सम्मेदशिखर पर्वत पर पधारे और एक हजार मुनियों सहित अनशन ग्रहण कर लिया । एक महीने पश्चात् ज्येष्ठ कृष्णा नवमी को चन्द्र जब श्रवणा नक्षत्र में था प्रभु ने उन हजार मुनियों सहित मोक्ष पद को प्राप्त किया । इन्द्र और देवगण भक्तिवशतः वहां आए और मुनियों का मोक्ष गमन उत्सव यथाविधि सम्पन्न किया । (श्लोक २४३-२४७)
सप्तम सर्ग समाप्त
श्रष्टम सर्ग
जिनेन्द्र मुनिसुव्रत स्वामी जब पृथ्वी पर तब चक्रवर्ती महापद्म ने जन्म ग्रहण किया था विवृत कर रहा हूं ।
जम्बूद्वीप के पूर्ववदेह के अलङ्कार रूप श्रीनगर नामक एक नगर था। वहां प्रजापाल राज्य करते थे । वे जिस प्रकार प्रजा पुञ्ज के कल्याण में रत थे उसी प्रकार अन्य राजाओं के यश रूपी हंसों को छिन्न-भिन्न करने में मेघ रूप थे । एक दिन आकाश में विद्युत्पात होते देखकर वे संसार से विरक्त हो गए और मुनि समाधिगुप्त से श्रमण दीक्षा ग्रहण कर
विचरण कर रहे थे । उनका चरित्र यहां
( श्लोक १ ) सुकच्छ विजय में नामक एक राजा