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करने लगे । राजा ने उस अश्व को मुक्त कर दिया और उससे क्षमा प्रार्थना की। तभी से भगुकच्छ तीर्थ रूप में परिणत हो गया और अश्वावबोध नाम से प्रसिद्ध हुआ।
(श्लोक २१९-२२०) देशना शेष होने पर प्रभु लोक कल्याण के लिए विभिन्न स्थानों पर विचरण करते हुए एक दिन हस्तिनापुर आए। वहाँ जितशत्रु नामक एक राजा राज्य करते थे। उसी नगरी में एक हजार बणिकों का कार्तिक नामक प्रमुख निवास करता था। कार्तिक जैन श्रावक था। वहां गेरुए वस्त्र धारण करने वाला एक वैष्णव तापस रहता था। वह कई बार एक-एक महीने का उपवास करता। वहां के अधिवासी भी उसकी पूजा करते और महीने के अन्त में अपने घर पारणा करने के लिए भक्ति भाव से आमन्त्रित करते; किन्तु सम्यक् दृष्टि सम्पन्न कातिक उसे आमन्त्रित नहीं करता । वह तापस इससे क्रुद्ध होकर सुयोग की प्रतीक्षा करने लगा ताकि कार्तिक को दण्डित किया जा सके । एक दिन राजा जितशत्रु ने तापस को अपने घर पारणा करने के लिए आमन्त्रित किया। तब उस तापस ने राजा से कहा-'कार्तिक सेठ यदि मेरी सेवा करे तो मैं आपके यहां पारणा कर सकता हूं।' राजा बोले-'ठीक है, ऐसा ही होगा।' राजा कार्तिक के घर गए और उससे तापस की सेवा करने को कहा। कार्तिक बोला-'मिथ्यात्वी की सेवा करना मेरे लिए उचित नहीं है फिर भी मैं आपके आदेश से उसकी सेवा करूंगा।'
(श्लोक २२१-२२७) यदि मैं पहले ही दीक्षा ले लेता तो मुझे यह काम नहीं करना पड़ता-'ऐसा सोचते हुए कार्तिक सेठ राज-प्रासाद में गए।' कार्तिक जब उसकी सेवा कर रहे थे, वह तापस बार-बार नाक पर अंगुली रगड़कर उसे दिखाते हुए अपनी घणा प्रदर्शित करने लगा। इस कार्य से कार्तिक को संसार से वैराग्य हो गया। उस तापस की सेवा से अनिच्छुक कार्तिक सेठ ने एक हजार बणिकों के साथ प्रभु से दीक्षा ग्रहण कर ली। तदुपरान्त द्वादशांगी का अध्ययन कर बारह वर्षों तक महावतों का पालन कर मृत्यु के पश्चात वह सौधर्म देवलोक में इन्द्र के रूप में उत्पन्न हआ। तापस भी मृत्यु के पश्चात् अभियोगिक कर्म के कारण उसी इन्द्र का वाहन ऐरावत के रूप में सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। इन्द्र