________________
[२०३
रहता था। वह श्रावक धर्म का पालन करता था। उसका सागरदत्त नामक एक मित्र था जो कि नगरपालक था। सम्यक दृष्टि प्राप्त करने के लिए वह जिनधर्म के साथ चैत्यालय जाया करता था। एक दिन उसने एक साधु के मुख से सुना कि जो अर्हत् प्रतिमा का निर्माण करवाता है वह धर्म लाभ कर परभव में मुक्त हो जाता है । यह सुनकर सागरदत्त ने अर्हत् भगवान् की स्वर्ण प्रतिमा निर्मित करवा कर खूब धूमधाम से साधुओं द्वारा उसकी प्रतिष्ठा करवाई।
(श्लोक २०४-२०७) नगर के बाहर बहुत समय पूर्व बना हुआ एक शिवालय था । उस शिवालय में सागरदत्त शीतकालीन संक्रान्ति में जाता और होम करता। वहां अनेक घी से भरे घड़े रखे हुए थे । उसी घी को खाने के लिए पूजारीगण घड़े खींच-खींचकर बाहर निकालने लगे। घड़ों पर और घड़ों के नीचे बहुत-सी चींटियां एकत्र हो गई थीं। घड़ों को निकालते समय वे जमीन पर गिरने लगी और पूजारियों के पैरों द्वारा कुचलने लगीं। यह देखकर सागरदत्त करुणावश उन्हें अपने वस्त्रों से दूर हटाने लगा। इससे क्रुद्ध होकर एक पुजारी बोला-'तुमने क्या श्वेत वस्त्रधारी साधुओं से यह शिक्षा प्राप्त की है ?' ऐसा कहकर चींटियों को अपने पैरों तले और कुचलने लगा। सागरदत्त हतबुद्धि-सा बना आचार्य का मुख देखने लगा; किन्तु आचार्य ने उस पुजारी को अनुशासित नहीं किया। तब मन ही मन सोचने लगा-'हाय ! ये सभी करुणाशून्य हैं। जो ऐसे निष्ठर हैं उन्हें गुरु कहकर पूजा कैसे की जा सकती है ? यज्ञानुष्ठान में पशुबलि देकर ये स्वयं ही नरक में पड़ेंगे।' ऐसा सोचकर आचार्य के आदेश से उन्होंने होमानुष्ठान किया और बिना सम्यक दृष्टि प्राप्त ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। सागरदत्त स्वभावतः ही उदार और चारित्र सम्पन्न था एवं व्यवसायलब्ध अर्थ सत्कर्म में लगाता था। इसीलिए इसने कुलीन अश्व के रूप में जन्म ग्रहण किया है। मैं इसे बोध देने के लिए ही यहां आया हूं । पूर्व जन्म में अर्हत् प्रतिमा निर्मित करवाकर इसने जो शक्ति प्राप्त की उसी के प्रभाव से मेरी देशना सुनने मात्र से उसे धर्म की प्राप्ति हो गई।'
(श्लोक २०८-२१८) प्रभु द्वारा इस कहानी को सुनकर सभी उस अश्व की प्रशंसा