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मद और दर्प ) के विनाश में तत्पर रहना, इन्द्रियों को वश में रखना | ये सब गुण जिनमें वर्तमान हैं वे ही श्रावक धर्म को ग्रहण करने के अधिकारी हैं । जो व्यक्ति यति धर्म पालन करने में असमर्थ हैं; किन्तु मनुष्य जीवन की सार्थक करना चाहते हैं उन्हें उपर्युक्त श्रावक धर्म अवश्य ग्रहण करना चाहिए । ( श्लोक १७४ - १९० ) यह देशना सुनकर बहुत से व्यक्तियों ने साधु धर्म ग्रहण किया और अनेकों ने श्रावक धर्म ग्रहण किया । कारण अर्हतों का उपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाता । प्रभु इन्द्र आदि १८ गणधर हुए । प्रभु की देशना के पश्चात् इन्द्र गणधर ने देशना दी । जब उनकी देशना समाप्त हुई तब शक्र, सुव्रत आदि सभी उन्हें प्रणाम कर स्व-स्व स्थान को चले गए । ( श्लोक १९१ - १९३ ) भगवान के तीर्थ में त्रिनेत्र चतुर्मुख श्वेतवर्ण जटायुक्त वृषभ वाहन वरुण नामक यक्ष उत्पन्न हुए जिनके दाहिनी ओर के चारों हाथों में से एक में विजोरा नींबू, दूसरे में दण्ड, तीसरे में तीर और चौथे में वरछी थी । बायीं ओर के चारों हाथों में क्रमशः नकुल, अक्षमाला, धनुष और कुठार थे। इसी प्रकार उनके तीर्थ में सिंहासनारूढा शुभ्रवर्णा नरदत्ता नामक यक्षिणी उत्पन्न हुई जिनके दाहिनी ओर के दो हाथों में से एक हाथ वरद मुद्रा में था, दूसरे हाथ में अक्षमाला थी एवं दूसरे दोनों हाथों में से एक में विजोरा नींबू, दूसरे में त्रिशूल था । ये दोनों सुव्रत स्वामी के शासन देव - देवी हुए । ( श्लोक १९४ - १९७)
उनके द्वारा सेवित होते हुए एवं पर्यटन करते हुए प्रभु भृगुकच्छ नगर में पधारे । राजा जितशत्रु अपने कुलीन अश्व पर आरोहित होकर प्रभु को वन्दना करने गए और उनकी देशना सुनी । उनके उस अश्व ने भी कान खड़े कर प्रभु की देशना सुनी । देशना शेष होने पर गणभृत ने पूछा, 'हे भगवन्, इस समवसरण में किसको धर्मलाभ हुआ ? प्रभु बोले, राजा जितशत्रु के कुलीन अश्व को छोड़कर किसी को भी नहीं हुआ । राजा जितशत्रु ने आश्चर्यान्वित होकर पूछा, 'हे भगवन्, धर्मग्रहणकारी यह अश्व कौन है ?
( श्लोक १९८ - २०३ )
प्रभु ने प्रत्युत्तर में कहा
'पद्मिनीखण्ड नगर में किसी समय जिनधर्म नामक एक व्यक्ति