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उसी प्रकार भव समुद्र से बुद्धिमान लोग धर्मरूपी अमूल्य रत्र प्राप्त करते हैं। संयम, सत्य, शुचिता, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, तप, क्षमा, मृदुता, सरलता और निर्लोभिता दश धर्म हैं। अपने देह की इच्छा से भी रहित, ममत्व वजित, सत्कार और अपमान में समदृष्टि, परिषह और उपसर्ग सहन करने में समर्थ, मैत्री, प्रमोद, करुणा
और माध्यस्थ भावना युक्त, क्षमाशील, विनयवान, इन्द्रिय दमनकारी गुरु के प्रति श्रद्धायुक्त एवं जाति कुल सम्पन्न व्यक्तित्व ही यति धर्म का अधिकारी है। पाँच अणुव्रत, तीन अणुव्रत और चार शिक्षाक्त सम्यक्त्व के मूल हैं। निम्नलिखित ३५ नियम (मार्गानुसारिता) गृहस्थ धर्म के अनुकूल हैं, यथा-न्याय से उपाजित धन संग्रह करना, शिष्टाचार की प्रशंसा करना, अनुरूप कुलशील सम्पन्न भिन्न गोत्र में विवाह करना, पाप भीरु होना, देशमान्य नियमों का पालन करना, निन्दा नहीं करना, विशेष कर राजाओं की, घर से निकलने के दरवाजों का घर में अधिक नहीं होना, घर निर्जन में नहीं बनाना, बाजार में भी नहीं बनाना, जहाँ के पास-पड़ोसी सदाचारी हों वहीं बनाना, सत्संग करना, माता-पिता की सेवा करना, जहां उपद्रव होते हों वहाँ वास नहीं करना, निन्दित कर्म नहीं करना, आय के अनुसार व्यय करना, अपने सामर्थ्य के अनुसार वेष भूषा करना, बुद्धि के आठ गुण (१ शुश्रूषा--धर्म ग्रन्थ श्रवण करने की इच्छा, २ श्रवण-धर्म ग्रन्थ श्रवण करना, ३ ग्रहण-शास्त्रार्थ ग्रहण करना, ४ धारण-उसे मन में बसाना, ५ ऊह- उस पर विचार करना, ६ अपोह-जो युक्ति विरुद्ध हो ऐसी प्रवृत्ति नहीं करना, ७ अर्थविज्ञान-ऊहापोह जात संदेह दूर करना, ८ तत्त्वज्ञान -निश्चयपूर्वक जानना), प्रतिदिन धर्म श्रवण करना, अजीर्ण होने पर भोजन नहीं करना, यथासमय भोजन करना, बिना विरोध के धर्म अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग प्राप्त करना, यथाविधि धनी दरिद्र का निविशेष अतिथि सत्कार करना दुराग्रह नहीं करना, गुणों का पक्षपात करना, देशकाल निषिद्ध कार्य नहीं करना, अपनी शक्ति का ज्ञान रखना, जो व्रतधारी हैं, ज्ञानवृद्ध हैं उनकी पूजा करना, जिन्हें पोषण करना आवश्यक है उनका पोषण करना, दूरदर्शी होना, वस्तु स्वरूप का ज्ञाता होना, कृतज्ञ होना, लोक प्रिय होना, दयालु और सोम्य होना, दूसरों का उपकारी होना, छह अन्तःशत्रु ( काम, क्रोध, लोभ, मान,