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भांति ग्यारह महीनों तक विचरण किया। (श्लोक १५४-१५७)
विचरण करते-करते प्रभु उसी नीलगुहा उद्यान में लौटे और चम्पक वृक्ष के नीचे प्रतिमा धारण कर अवस्थित हो गए। फाल्गुन मास की कृष्णा द्वादशी को चन्द्र जब श्रवणा नक्षत्र में अवस्थित था घाती कर्मों का क्षय हो जाने से केवलज्ञान प्राप्त किया। शक व अन्य देवों ने समवसरण की रचना की । उसके बीच में दो सौ धनुष दीर्घ अशोक वृक्ष स्थापित किया। प्रभु ने समवसरण में प्रवेश कर चैत्य वृक्ष की प्रदक्षिणा दी और 'नमो तित्थाय' कह कर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ गए । व्यंतर देवों ने उसके अनुरूप तीन प्रतिमा निर्मित कर तीन ओर रखी । तत्पश्चात् चतुर्विध संघ यथा स्थान अवस्थित हुआ । प्रभु समवसरण में अवस्थित हैं ज्ञात कर राजा सुव्रत वहाँ आए और प्रभु को वन्दना कर शक के पीछे जाकर बैठ गए । प्रभु को पुनः नमस्कार कर हाथों को मस्तक पर लगाकर शक्र और सुव्रत ने इस प्रकार भक्तिपूर्ण स्तुति की
(श्लोक १५८-१६४) आपके चरण दर्शन से ही यह शक्ति उपाजित हई है जिससे हम आपका गुणगान कर रहे हैं । जब आप देशना देते हैं तब सूत्ररूपी शावक के लिए मातृरूप आपकी गौस्वरूपा वाणी को हम सम्मानित करते हैं। तेलाक्त पात्र के संसर्ग से जिस भांति शुष्क पात्र भी तैलाक्त हो जाता है उसी भाँति आप की गुणावलियों को जानकर मनुष्य स्वतः ही गुणवान बन जाता है । जो अन्य कामों का परित्याग कर आपके उपदेश को श्रवण करते हैं वे पूर्ण कर्मों से तत्क्षण मुक्त हो जाते हैं। हे देव, पाप रूपी पिशाच फिर उनका कुछ नहीं कर सकता । आपने सभी को अभय दिया है अत: सभी निर्भय हो गए हैं। किन्तु मेरे यहां से चले जाने के पश्चात् आप से जो विच्छेद होगा उसी के भय से मैं भीत हं । चिरकालीन वैर में अन्य वाह्य शत्र ही नहीं अन्तःशत्रु भी आपके समक्ष शान्त हो जाते हैं। आपका नाम स्मरण मात्र, जो पृथ्वी की कामना पूर्ण करने में कामधेनु रूप है, मैं जहां भी रहूं वह मेरे साथ रहे।' (श्लोक १६५-१७२)
शक्र और सुव्रत के इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् सब के ज्ञान के लिए प्रभु ने निम्न देशना दी।
(श्लोक १७३) लवण समुद्र से जिस प्रकार अमूल्य रत्र प्राप्त किया जाता है