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श्री विजय ने कहा, 'मित्र सुनो, आज से आठ दिनों पूर्व हमारे यहाँ एक नैमित्तिक आया था । मैंने उससे सम्मान पूर्वक पूछा, आप यहाँ कुछ प्रार्थना करने आए हैं या कोई सूचना देने ?' प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा - 'यद्यपि हम भिक्षाजीवी हैं फिर भी इस समय आपसे कुछ प्रार्थना करना उचित नहीं है । मैं आपसे जो कुछ कहने आया हूं वह कहने योग्य नहीं है । फिर भी जो कुछ कहूंगा उसका प्रतिषेध धर्म द्वारा करणीय है । आज से सातवें दिन दोपहर में पोतनपति के ऊपर आकाश से बज्रपात होगा । ( श्लोक १७८ - १८२)
'उसके विष से कड़ए कथन पर क्रुद्ध होकर महामात्य बोले'नैमित्तिक, तुम्हारे ऊपर क्या पतित होगा ?' नैमित्तिक बोला, 'महामंत्रीजी, आप मुझ पर कुपित न हों । शास्त्रों में जो देखा है मैं वही कह रहा हूं । मेरा यहाँ कोई शत्रु नहीं है । मुझ पर क्या गिरेगा ? मुझ पर तो उस दिन वस्त्र, अलङ्कार, रत्न और स्वर्ण की वर्षा होगी ।'
( श्लोक १८३ - १८५ )
'तब मैंने महामात्य से कहा, 'हे महामना, आप उस पर क्रुद्ध न हों । गुप्तचर की भांति उसने हमको सत्य बतलाया है । वह तो हमारा उपकारी है । किन्तु; नैमित्तिक अब आप बतलाएँ कि आपने निमित्त शास्त्र का अध्ययन कहाँ किया है ? शास्त्र - ज्ञान के प्रमाण के अतिरिक्त साधारण जनों के कथन पर विश्वास नहीं होता ।'
( श्लोक १८६ - १८७ ) 'तब नैमित्तिक बोला, 'हे राजन्, बलदेव ने जब दीक्षा ग्रहण की तब मेरे पिता सांडिल्य ने भी दीक्षा ग्रहण की थी । पिता के प्रति स्नेहवशतः मैं भी उनके साथ दीक्षित हो गया । उस समग्र मैंने समस्त नैमित्तिक शास्त्रों का अध्ययन किया । परिपूर्ण ज्ञान केवल जिनवाणी में ही पाया जाता है, अन्यत्र नहीं । लाभ-हानि, सुख-दुःख, जय-पराजय, जीवन और मृत्यु का अष्टविध निमित्त मैंने इस प्रकार अधिगत कर लिया ।' ( श्लोक १८८ - १९१) 'बड़े होने के पश्चात् एक दिन घूमते-घूमते पद्मिनी खण्ड नामक नगर में पहुंचा। मेरे पितृस्वसा हिरण्यमालिका तब अपनी वयस्क कन्या चन्द्रयशा के साथ वहां रहती थी । चन्द्रयशा जब छोटी थी तब उन्होंने उसे मुझे देने की प्रतिज्ञा की थी । मेरे दीक्षा ग्रहण कर लेने के कारण विवाह में बाधा उपस्थित हो गई । किन्तु;