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जब मैंने उसे देखा तो सहज ही उसकी ओर आकृष्ट हो गया और बोझ की तरह व्रत परित्याग कर उससे विवाह कर लिया । जो काम के वशीभूत हो जाते हैं उनका विवेक भला कब तक रह पाता है ? मेरा भाग्योदय और आपका भाग्यनाश निमित्त द्वारा जानकर मैं यहाँ आया हूं । अब जो कुछ करणीय हैं वह आप करें ।'
( श्लोक १९२ - १९६ )
'ऐसा कहकर वह चुप हो गया । मेरे मन्त्री चतुर होने पर भी मेरी रक्षा के लिए क्या करना उचित है उस समय निश्चत नहीं कर पाए । एक मन्त्री ने कहा, 'समुद्र में विद्युत्पात नहीं होता । अतः महाराज सात दिन समुद्र के भीतर नौका में रहें ? दूसरा मन्त्री बोला, 'यह युक्ति मेरे मन के अनुकूल नहीं है । यदि वहाँ विद्युत्पात हो जाए तो उनकी रक्षा कौन करेगा ? अवसर्पिणी काल में वैताढ्य पर्वत पर विद्युत्पात नहीं होता अतः महाराज वहाँ जाकर पर्वतगुफा में सात दिन निवास करें ।' तीसरा मन्त्री बोला, 'मैं इससे सहमत नहीं हूं | जो कुछ घटित होने वाला है वह स्थान परिवर्तन द्वारा रोका नहीं जा सकता । एक कहानी सुनो- ( श्लोक १९७ - २०१ ) 'इसी भरत क्षेत्र के विजय नामक नगर में रुद्रसोम नामक एक ब्राह्मण रहता था । उसके कोई पुत्र नहीं था । बहुत यागयज्ञ और प्रार्थना के पश्चात् उसकी पत्नी ज्वलनशिखा ने दीर्घकाल बाद एक पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम रखा गया शिखी । एक बार दुर्भाग्यवश उसी नगर में नरमांसभोजी एक क्रूर राक्षस आकर रहने लगा | वह प्रतिदिन अनेक मनुष्यों की हत्या करता । यद्यपि वह खाता तो सामान्य-सा ही था, अधिकांश को तो इधर-उधर बिखराकर छोड़ देता । यह देखकर राजा उससे बोले, 'तुम क्यों प्रतिदिन इतने मनुष्यों की हत्या करते हो ? बाघ जैसा अज्ञानी जीव भी क्षुधा शान्ति के लिए मात्र एक ही जीव की हत्या करता है । अत: तुम भी प्रतिदिन आहार के लिए एक ही मनुष्य को ग्रहण करो। और उसे मैं ही तुम्हारे पास भेज दूँगा ।' इस प्रस्ताव पर राक्षस सहज ही सम्मत हो गया । ( श्लोक २०२-२०७ )
' किस दिन कौन जाएगा यह निर्धारित करने के लिए राजा ने प्रजाजनों के नाम की गुटिका प्रस्तुत करवाई । जो गुटिका हाथ में आ जाएगी उस दिन उसी को राक्षस के आहार रूप में भेज दिया