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[११ कार्य में विलम्ब मत करो।' महर्षि द्वारा इस प्रकार अभिहित होकर अर्ककीर्ति दृढ़ संकल्प लेकर राजधानी लौट आए । अनेक अनुरोधउपरोध द्वारा उन्होंने पुत्र अमिततेज को राज्य ग्रहण करवाया। पिता और पुत्र का व्यवहार ऐसा ही होता है । राजा अमिततेज ने पिता की प्रवज्या ग्रहण करने का उत्सव मनाया । अर्ककीति ने अभिनन्दन मुनि से दीक्षा ग्रहण की। राजर्षि अर्ककीति शान्ति-राज्य शासित करते हए गुरुदेव के साथ पृथ्बी पर भ्रमण करने लगे। अमिततेज पादपीठ पर रखे हुए जिनके चरण-कमल विद्याधर राजाओं के मुकुट-मणियों द्वारा चचित होते थे पिता से प्राप्त उसी राज्य पर शासन करने लगे।
(श्लोक १६०-१६७) वासुदेव त्रिपृष्ठ की मृत्यु होने से विरक्त होकर बलराम अचल ने श्रीविजय को सिंहासन पर बैठाकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। विजयलक्ष्मी द्वारा स्वामी रूप में वरण किए हुए श्री विजय राजाओं द्वारा सेवित होकर अपने पूर्व पुरुषों का राज्य शासन करने लगे।
___ (श्लोक १६८-१६९) एक दिन अमिततेज सुतारा और श्री विजय से मिलने के लिए पोतनपुर गए। वहाँ उन्होंने आकाश से नगरी को ध्वज-पताकातोरण-मंच आदि से सुशोभित और अनुत्तर विमानों के प्रासादों की तरह आनन्द से आपूरित देखा । राज-परिवार को विशेष रूप से आनन्दित देखकर आश्चर्यचकित वे सूर्य जैसे समुद्र में उतरता है उसो प्रकार आकाश से वहाँ उतरे। दूर से ही उन्हें देखकर राजा श्रीविजय उठकर खड़े हो गए। अतिथि तो कोई भी हो सम्माननीय होता है फिर राज-अतिथि का तो कहना ही क्या ? दोनों ने परस्पर एक दूसरे का आलिंगन किया। अमिततेज अपनी बहिन सुतारा से भी मिले । आनन्द की अमृतधारा प्रवाहित होने लगी । तदुपरान्त दोनों पूर्वांचल और पश्चिमांचल अवस्थित सूर्य और चन्द्र की तरह महासिंहासन पर बैठे।
(श्लोक १७०-१७५) तब स्वच्छमना अमिततेज ने पूछा- 'बन्धु, आज कौमुदी उत्सव का दिन नहीं है, न ही आज अग्रहायण मास की पूर्णिमा है। ग्रीष्म ऋतु भी नहीं है, न बसन्त ऋतु । न आपके पुत्र का जन्म हुआ है । तब किस आनन्द से आज नगरी उत्सव मुखर हो उठी है ?'
(श्लोक १७६-१७७)