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पारस्परिक द्वेष भाव भूल जाते हैं ।' समता उसी विशिष्ट आत्मा में निवास करती है जो चेतन और अचेतन किसी भी वस्तु पर इष्ट अनिष्ट का विचार कर मोहित नहीं होते । उनमें उत्तम समता अवस्थान करती है जिनके हाथ पर गोशीर्ष चन्दन विलेपन करने पर या हाथ काट डालने पर मनोवृत्ति में कोई भेद उत्पन्न नहीं होता । जो उनकी प्रशंसा करे और जो क्रोधान्ध होकर उन्हें गाली दे, इन दोनों के प्रति ही जो प्रीति परायण हैं, समता उनमें रहती है । ( श्लोक २३१-२३४)
'यदि समता का अवलम्बन ग्रहण कर लें तो उसे न यज्ञ की आवश्यकता है, न प्रार्थना की, न तप की, न जप की, न दान की; वह तो बिना मूल्य के ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है । एतदर्थ बिना प्रयत्न के सहज रूप में सुखकारी समता धारण करना सबका कर्तव्य है । स्वर्ग और मोक्ष सुख को तो परोक्ष कहकर उसको अस्वीकार किया जा सकता है; किन्तु समता सुख तो प्रत्यक्ष है । अतः कोई अनात्मवादी भी इसे अस्वीकार नहीं कर सकता । कविगण जिसे ब्रह्मानन्द कहते हैं और जो रूढ़ हो गया है उस पर मुग्ध होने की जरूरत नहीं है; किन्तु जो आनन्द इस अनुभव में आता है उस समता रूपी अमृत का निरन्तर पान करने में बाधा क्या है ? गले में कोई सांप डाले या पुष्पमाला पहनाए इन पर, जिन्हें विराग या राग नहीं है, वे समता के अधीश्वर हैं । समता ऐसा गूढ़ विषय नहीं है जो समझ में नहीं आए और न ही इसके लिए भाषा - टीका की आवश्यकता है । जो सहज और सरल ज्ञान सम्पन्न है, समता उनके लिए भवराग से मुक्त होने के लिए औषधि रूप है । राग-द्वेष दमनकारी योगियों में भी ऐसे क्रूर कर्म हैं जो समता रूपी शस्त्र नष्ट करते हैं । समता का परम प्रभाव तो यह है कि पापी भी यदि समता ग्रहण करें तो क्षणमात्र में ही शाश्वत पद प्राप्त कर सकते हैं । समता रहने पर ही सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी त्रिरत्न फल प्रदान करता है । समता न रहने पर सम्यक ज्ञानादि त्रिरत्न भी निष्फल हो जाते हैं । जब नानाविध उपसर्ग आकर उपस्थित होता है अथवा मृत्यु, उस समय समता श्रेष्ठ ही अवलम्बनीय है । इसीलिए समता जो मोक्ष रूपी वृक्ष का एकमात्र वीज है और अनुपम सुख प्रधानकारी है वह