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[१-९ राग-द्वेष को जय करने वाले के लिए अवश्य ही अवलम्बनीय हैं ।' ( श्लोक २३५ - २४६ ) इस देशना को सुनकर उन छहों राजाओं ने दीक्षा ग्रहण कर ली और उनके माता-पिता ने श्रावक धर्म अङ्गीकार कर लिया । मल्ली प्रभु के भीषक आदि २८ गणधर हुए । मल्ली प्रभु की देशना के पश्चात् गणधर भीषक ने देशना दी। दूसरे दिन उसी उद्यान में राजा विश्वसेन से खीर ग्रहण कर प्रभु ने पारणा किया । इन्द्रादि देव और कुम्भादि राजा भगवान के चरणों में वन्दना कर स्व-स्व निवास को लौट गए । ( श्लोक २४७ - २५० ) उनके तीर्थ में शासन देव के रूप में इन्द्रधनुष वर्ण के चतुर्मुख गजवाहन कुबेर नामक यक्ष उत्पन्न हुए । उनके चार दाहिने हाथों में से एक हाथ वरद मुद्रा में था, दूसरे हाथ में कुठार, तीसरे हाथ में त्रिशूल और चौथा हाथ अभय मुद्रा में था । बायीं ओर के एक हाथ में विजोरा नींबू, दूसरे में भाला, तीसरे में हथौड़ी और चौथे हाथ में अक्षमाला थी । इसी भाँति शासन देवी के रूप में उनके तीर्थ में कृष्णवर्णा पद्मासना वैरोट्या देवी उत्पन्न हुईं । उनके दाहिनी ओर के दो हाथों में से एक हाथ वरद मुद्रा में था दूसरे हाथ में थी अक्षमाला । बाईं ओर के एक हाथ में विजोरा नींबू और दूसरे हाथ में भाला था । ( श्लोक - २५१-२५४)
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भव्य जीवों के उद्धार के लिए प्रभु ग्राम, नगर, खान आदि समस्त पृथ्वी पर विचरण करने लगे । उनके साथ ४०००० साधु, ५५००० साध्वियां, ६६८ पूर्वधर, २२०० अवधिज्ञानी, १३५० मनःपर्याय ज्ञानी, २२०० केवली, २८०० वैक्रिय लब्धिधारी, १४०० वादी, १८३००० श्रावक, ३७०००० श्राविकाएँ थीं । इस प्रकार वे ३०० वर्ष कम ५५००० वर्षों तक पृथ्वी पर विचरण करते रहे । ( श्लोक २५५ - २६१) अपना निर्वाण समय ज्ञात कर मल्ली प्रभु ५०० साधु और ५०० साध्वियों के साथ सम्मेत शिखर पधारे। एक मास के उपवास के पश्चात् फाल्गुन शुक्ला दशमी को चन्द्र जब भरणी नक्षत्र में अवस्थित या ५०० साधु और ५०० साध्वियों सहित प्रभु ने निर्वाण प्राप्त किया । भगवान् अरनाथ के ५००० करोड़ वर्षों पश्चात् मल्ली प्रभु ने निर्वाण प्राप्त किया। समस्त दिशाओं से इन्द्रादि