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दीप्ति रूप सुरक्षा का तिलक अंकित कर देता है। जन्म से ही ब्रह्मचर्य पालन करने के कारण आप जन्म समय से ही दीक्षित हो गए थे । मुझ लगता है आपका जन्म मानो व्रत ग्रहण का पुनरावृत्ति रूप है । उस स्वर्ग से भी क्या प्रयोजन है जहाँ आपका दर्शन नहीं होता? आपके दर्शनों के कारण यह पृथ्वी उत्तम है । हे भगवन्,संसार भय से भीत मनुष्य, देवता और अन्य जीवों के लिए आपका समवसरण आश्रय और दुर्ग रूप है । आपके चरणों की वन्दना करने के अतिरिक्त अन्य कर्म मन्दकर्म या कर्मबन्धन और भव परम्परा की सृष्टि करता है। आपके ध्यान के सिवाय अन्य ध्यान मन्द ध्यान है कारण उस ध्यान में मकड़ी जिस प्रकार अपने ही बुने जाल में आबद्ध हो जाती है, जीव भी उसी प्रकार आबद्ध हो जाता है । आपके गुणों की कथा के अतिरिक्त अन्य कथा विकथा है। तित्तिर पक्षी के शब्द की तरह वह उसकी मृत्यु का कारण बनता है। हे जगद्गुरु, आपके चरण कमलों की सेवा से मेरा बार-बार जन्म लेने का अन्त हो एवं जब तक ऐसा नहीं हो जाता है तब तक जन्म-जन्म में आपकी भक्ति प्राप्त करूं।'
(श्लोक २१७-२२४) __इस प्रकार स्तुति कर देवराज इन्द्र और नरकुजर कुम्भ बैठ गए। तदुपरान्त मल्ली प्रभु ने सुनने को उत्सुक संघ को इस प्रकार देशना दी
(श्लोक २२५) _ 'यह संसार रूपी समुद्र अपार होने पर भी पूर्णिमा के दिन जिस प्रकार समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार राग द्वेषादि के कारण और बढ़ जाता है। जो जीव उत्तरोत्तर आनन्द प्रदानकारी समता जल में स्नान करते हैं उनका राग-द्वेष रूपी मैल धुल जाता है। जो कर्म कोटि जन्म तक कठोर तपस्या करने पर भी नष्ट नहीं होता वही कर्म समता का अवलम्बन लेने पर क्षण मात्र में विनष्ट हो जाता है। जीव और कर्म दोनों मिलकर जब एक रूप हो जाते हैं तो साधुजन ज्ञान द्वारा उसे अवगत कर समता शलाका द्वारा उन्हें पृथक् कर देते हैं। योगी पुरुष सामायिक रूपी किरण से रागादि रूप अन्धकार को क्लिष्ट कर स्व-परमात्मा स्वरूप का दर्शन करते हैं।
(श्लोक २२६-२३०) 'जिन प्राणियों के स्वार्थ के कारण नित्य और जाति बैर रहता है ऐसे प्राणी भी समता सिद्ध प्राणी के निकट आकर