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१८६] करेंगे' ऐसा कहकर मल्ली ने उन सबों को विदा दी। वे भी अपनेअपने नगर को लौट गए।
((श्लोक २०१) तत्पश्चात् लोकान्तिक देवों ने मल्ली कुमारी के पास आकर प्रार्थना की, 'अब आप तीर्थ स्थापित करें ।' मल्ली ने भी जम्भक देवों द्वारा लाए द्रव्यों को एक वर्ष तक दान दिया । जब उनकी उम्र सौ वर्ष की हो गयी तब पच्चीस धनुष दीर्घ मल्ली के महाभिनिष्क्रमण का उत्सव राजा कुम्भ और देवेन्द्रादि द्वारा अनुष्ठित हुआ। जयंती नामक रत्नजड़ित शिविका में बैठकर मल्ली उद्यान श्रेष्ठ सहस्राम्रवन उद्यान में गयीं। मल्ली ने उस उद्यान में प्रवेश किया जिसके कुछ भाग में कृष्ण इक्षु का क्षेत्र था और कुछ भाग में शुक्ल पक्ष के चन्द्र की तरह श्वेत इक्षु का क्षेत्र था। उस उद्यान में कमला नीबू के पेड़ पर मानिक की तरह पके हुए कमला नीबू लटक रहे थे । वक्र पंक्तियों के कारण वह उद्यान नीलकान्त मणि का हो ऐसा भ्रम हो रहा था । पथिकगण कुएँ का जल थोड़ा-थोड़ा करके पी रहे थे और शीत के लिए नारी स्तनों की उष्णता जैसे, वट वृक्ष की उष्णता में आश्रय ले रहे थे। वह उद्यान शीतलक्ष्मी के हास्य-सी प्रस्फुटित मल्लिका के पुष्पों से अलंकृत था । मार्गशीर्ष मास की शुक्ला ग्यारस को चन्द्र जब अश्विनी नक्षत्र में अवस्थित था तब तीन उपवास के पश्चात् यथावत् उत्सव सहित मल्ली ने केशोत्पाटन कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उसी समय मल्ली को मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ और उसी दिन अशोक वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने समवसरण की रचना की जिसके मध्य भाग में ३०० धनुष दीर्घ चैत्यवृक्ष स्थापित किया गया । मल्ली ने पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर चैत्यवक्ष को प्रदक्षिणा दी और 'नमो तित्थाय' कहकर तीर्थ को नमस्कार किया। मल्लीनाथ के पूर्वाभिमुख होकर रत्नसिंहासन कर बैठने के पश्चात् व्यन्तर देवों ने तीन ओर उनका प्रतिरूप स्थापित किया । चतुर्विध संघ के यथास्थान अवस्थित होने पर कुम्भ और छह राजा शक के पीछे आकर बैठ गए । शक और राजा कुम्भ ने जगद्गुरु को वन्दना कर श्रद्धाप्लुत हृदय से आनन्दमना बने इस प्रकार स्तुति की :
(श्लोक २०२-२१६) 'संसार भय से भीत होकर जो आपको वन्दना करता है तो समझो भाग्योदय ही जैसे उसके ललाट पर आपके चरण नखों की