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[१८१ ही धर्म का मूल है। तीर्थस्थानों में जलदान करने से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है। यही एकमात्र सत्य है ? उस नगरी तथा राज्य के अधिवासियों को इस प्रकार प्रतिबोधित करते-करते एक दिन वह राजकुमारी मल्ली के प्रासाद में गयी। उसकी देह पर गैरिक परिधान थे, हाथ में त्रिदण्ड था। दर्भयुक्त कमण्डल से जल छिड़ककर वहाँ आसन बिछाकर वह बैठ गयी। (श्लोक १२२-१२५)
अन्य लोगों को जैसे वह अपने धर्म का उपदेश देती थी मल्ली को भी उसी प्रकार उपदेश दिया; किन्तु मल्ली तीन ज्ञान की अधिकारी थी । अतः परिवाजिका से कहा, 'एकमात्र दान ही धर्म का मूल नहीं होता है, तब तो कुत्ते बिल्लियों को खिलाना ही धर्म होता। तीर्थस्थल का जल छिड़कने से ही कुछ पवित्र नहीं हो जाता, कारण उससे जीव हिंसा होती हैं। क्या रक्त से पोंछने से रक्त का दाग मिट जाता है ? धर्म का मूल है विवेक । जहाँ विवेक नहीं है वहाँ धर्म नहीं है । अज्ञान कृत तप से देह-पीड़ा ही होती है, मोक्ष नहीं होता ।'
__(श्लोक १२६-१२९) यह सुनकर चोक्षा लज्जित होकर नतमुख हो गयी। यथार्थ वचन की अवहेलना कौन कन सकता है ? उसकी वह अवस्था देखकर अन्तःपुर की दासियाँ भी उसका उपहास करती हुयी बोलीं'आप अपने मिथ्या मत से कब तक लोगों को भ्रमित करती रहेंगी ?'
(श्लोक १३०-१३१) तब चोक्षा ने मन ही मन सोचा, राज मद के गर्व से गर्वित होकर मल्ली ने मेरा अपमान किया है। इतना ही नहीं, दासियों ने भी मुझ जो चाहा सो कहा है । मैं इसका प्रतिशोध लूगी । मैं मल्ली को बहत-सी पत्तियों के मध्य डाल दूंगी जिससे वह मेरे अपमान का फल भोगेगी।
(श्लोक १२३-१३३) इस प्रकार सोचकर कुपित चोक्षा काम्पिल्य के राजा जितशत्रु के पास गयी। राजा ने उठकर उसे सम्मानित किया। राजा को आशीर्वाद देकर अपना आसन बिछाकर वह बैठ गयी । राजा और अन्तःपुरिकाओं द्वारा उत्साहित होकर उसने वहाँ भी धर्म का मूल दान और पवित्र जल सिंचन का उपदेश दिया। जब राजा ने उससे पूछा, 'भगवती, आप तो पृथ्वी पर सर्वत्र स्वच्छन्द विचरण करती हैं । बताइए मेरे अन्तःपुर में जितनी सुन्दर रमणियाँ है क्या