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१७४] ने एक साथ सांसारिक सुख भोग किया उसी प्रकार भविष्य में एक साथ मुक्ति का आनन्द प्राप्त करेंगे। तब महाबल ने अपने पुत्र बलभद्र को सिंहासन पर बैठाया। इसी प्रकार उनके छह मित्र राजाओं ने भी अपने-अपने पुत्रों को सिंहासन पर बैठा दिया। तदुपरान्त सातों ने मुनिवर धर्म से दीक्षा ग्रहण की । दीक्षित होकर सातों ने यह प्रतिज्ञा की-हममें से प्रत्येक एक जैसी तपस्या करेगा शेष छह भी वैसी ही तपस्या करेंगे। ऐसा निश्चय कर मोक्ष के लिए प्रयत्नशील वे एक दिन बाद वह एक दिन इस प्रकार समान रूप से तपस्या करने लगे।
(श्लोक १३-१८) अधिक फल की कामना से महाबल ने अपने मित्रों को प्रतारित किया। वे पारणे के दिन 'आज मेरे माथे में दर्द है', 'आज मेरा पेट ठीक नहीं है', 'मुझे जरा भी भूख नहीं' ऐसा कहकर पारणा न कर व्रत कर लेते। उच्च परिणाम, उग्र तप और अर्हत् आदि २० स्थानक की उपासना कर उन्होंने एक ओर तीर्थङ्कर गोत्र कर्म उपाजित किया दूसरी ओर तपस्या में मिथ्याचार करने के कारण स्त्री-देह का भी बन्ध किया।
(श्लोक १९-२१) उनके जीवन की ८४ लाख पूर्व की आयुष्य जब शेष हो गई और संयम पालन के ८४ हजार वर्ष व्यतीत हो गए तब उन्होंने अनशन ग्रहण कर लिया। दो महीने अनशन के पश्चात् अप्रमत्त अवस्था में देह त्यागकर वे सभी वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र रूप में उत्पन्न हुए । जहां उनकी आयु ३२ सागरोपम की
(श्लोक २२-२३) इसी जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में मिथिला नामक एक नगरी थी। वहां के अधिवासियों को धर्म में अटूट श्रद्धा थी। स्वर्ण शिखर युक्त वहां की प्रासाद श्रेणी सूर्य शोभित पूर्वाञ्चल-सी प्रतीत होती। रत्नों जड़ित इस नगरी को देखकर लोग कहानियों में वर्णित रत्नजड़ित अलकादि नगरियों पर विश्वास कर लेते । जिस प्रकार स्वर्ग में देव विहार करते हैं उसी प्रकार वहां के अधिवासियों के स्व-सुन्दरी ललनाओं सहित विहार करने के कारण वह नगरी द्वितीय स्वर्ग हो ऐसा भ्रम होता।
(श्लोक २४-२७) यहां के राजा थे कुम्भ । क्षीर समुद्र के अमृत पूर्ण कुम्भ की तरह वे लक्ष्मी के निवास रूप इक्ष्वाकु वंश के रत्न-कुम्भ थे । समस्त