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और लोक भावना से विरक्त होकर संसार की अलङ्कार रूपा दीक्षा ग्रहण कर ली । अतिचार रहित व्रत पालन कर वे मोक्ष गए ।
(श्लोक ३६-३७) पंचम सर्ग समाप्त
षष्ठ सर्ग भव्य जीव रूप भ्रमर द्वारा आस्वादित जूही माल्य स्वरूप भगवान मल्लीनाथ की वाणी जययुक्त हो। मैं अब कर्ण के लिए अमृतरूप उनका वर्णन करूंगा।
(श्लोक १-२) __ इसी जम्बूद्वीप के अपर विदेह में सलीलवती विजय में वीतशोक नामक एक नगर था वहां बल नामक राजा राज्य करते थे। बल में वे अकेले ही एक वाहिनी तुल्य थे। शत्रु सैन्य रूप वाहिनी को उखाड़ने में हस्ती रूप और रूप में वे देवतुल्य थे । उनके धारिणी नामक पत्नी थी। जिसके गर्भ में महाबल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वे समस्त बल के मूर्त प्रतीक थे । कारण, उनकी माँ ने जन्म के पूर्व स्वप्न में सिंह देखा था। वे जब यौवन को प्राप्त हुए तब उन्होंने एक दिन कमल श्री आदि पांच सौ कन्याओं के साथ विवाह किया। महाबल के अचल, धरण, पूरण, वसू, वैश्रवण और अभिचन्द्र ये छह बाल्य मित्र थे। एक दिन उसी नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व कोण में इन्द्रकुब्ज उद्यान में कुछ मुनिगण आकर ठहरे । राजा बल ने उनको देशना सुनी और संसार से विरक्त होकर महाबल को सिंहासन पर बैठाकर मुनि दीक्षा ग्रहण कर अन्त में मोक्ष प्राप्त किया।
(श्लोक ३-९) सिंह स्वप्न द्वारा सूचित कमलश्री रानी के गर्भ से महाबल के बलभद्र नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। क्रमशः बलभद्र ने यौवन प्राप्त किया। उसे अपने प्रतिरूप में महाबल ने युवराज पद पर अभिषिक्त किया और स्वयं जपने छह सौ मित्रों सहित जिन-धर्म श्रवण करने लगे।
__ (श्लोक १०-१२) एक दिन महाबल ने अपने मित्रों से कहा-'मित्रगण, मैं संसार भय से भीत होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं। तुम लोग क्या करोगे ?' उन्होंने उत्तर दिया-'मित्र, जिस प्रकार हम छहों