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भी कार्यतः समवयस्क हों ऐसे ही लगते थे ।
( श्लोक २०-२२ ) प्रतिवासुदेव अर्द्धचक्री प्रह्लाद को एक दिन खबर मिली कि ऐरावत-सा एक सुन्दर हस्ती महाराज अग्निसिंह के पास है । उन्होंने उस हस्ती को प्राप्त करने के लिए आदमी भेजा; किन्तु नन्दन और दत्त ने उसे देने से अस्वीकार कर दिया । इससे अपमानित होकर वह सिंह की तरह क्रुद्ध हो उठा । कुपित वन्य हस्ती की तरह वासुदेव और प्रतिवासुदेव दोनों ने ससैन्य एक-दूसरे पर आक्रमण कर दिया । प्रह्लाद के आक्रमण से अपनी सेना को हारते देख कर रथ पर चढ़कर वासुदेव और बलदेव युद्ध में अग्रसर हुए । दत्त ने शत्रु सैन्य को विनष्ट करने के लिए पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया और सारंग धनुष पर टंकार दो मानो विजयतूर्य बजा रहे हैं । प्रह्लाद भी अपने धनुष की टंकार के निनाद से आकाश को निनादित कर क्रुद्ध दण्डपाणि (यम) की तरह उनकी और दौड़ा । वासुदेव और प्रतिवासुदेव क्रुद्ध होकर परस्पर बाण वर्षा करने लगे । विजय लाभ के उद्देश्य से दोनों परस्पर एक-दूसरे के बाण काट देते थे । विनाश में निपुण दोनों ने परस्पर एक दूसरे की गदा, दण्ड, मुद्गर और अन्य शस्त्रों को विनष्ट कर डाला । प्रलय के समय सूर्य जैसे उल्का उद्गीर्ण करता है उसी प्रकार सहस्र शिखायुक्त अग्नि उद्गीर्णकारी चक्र प्रह्लाद ने अपने मस्तक पर घुमाकर वासुदेव पर निक्षेप किया । वासुदेव ने उसी चक्र को, जो नाकाम होकर उनके निकट स्थिर खड़ा था, ग्रहण किया और माथे पर घुमाकर प्रह्लाद पर निक्षेप किया । चक्र ने प्रह्लाद का गला काट डाला । फिर वासुदेव दिग्विजय को निकले और भरतार्द्ध को जय कर लिया । तदुपरान्त कोटि-शिला उठाकर अर्द्धचक्री के रूप ( श्लोक २३ -३३) दत्त ने दो सौ वर्ष युवराज रूप में, पचास वर्ष मांडलिक राजा के रूप में, पचास वर्ष दिग्विजय में और अवशिष्ट काल चक्री रूप 'सुख भोग करते हुए व्यतीत किए। छप्पन हजार वर्ष की परमायु शेष होने पर वे अपने क्रूर कर्मों के कारण पंचम नरक में गए ।
अभिषिक्त हुए ।
( श्लोक ३४-३५) दत्त की मृत्यु के पश्चात् नन्दन जिनका आयुष्य पैंसठ हजार वर्ष था, किसी प्रकार जीवन को धारण किए रहे । भ्राता की मृत्यु