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[१७१ के प्रति विरक्त होकर ललितमित्र ने मुनि घोषसेन से दीक्षा ग्रहण कर ली। उग्र तपस्या कर उन्होंने यह निदान कर लिया कि मैंने तपस्या कर यदि कोई पुण्य संचय किया है तो अगले जन्म में खल की हत्या कर सक। इस निदान की आलोचना किए बिना ही वह मृत्यु को प्राप्त हुआ और सौधर्म देवलोक में शक्तिशाली देव रूप में उत्पन्न हुआ।
(श्लोक ४-९) दीर्घकाल तक भव अटवी पर्यटन करते हए मन्त्री खल का जीव जम्बूद्वीप के वैताढय पर्वत की उत्तर श्रेणी के तिलकपूर नगर में विद्याधरों के अधिपति प्रतिवासूदेव के रूप में जन्म प्रहण किया।
(श्लोक १०-११) __ जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में गंगा की मित्र रूपा वाराणसी नामक एक नगरी थी। इक्ष्वाकुवंशीय अग्निसिंह वहां के राजा थे। वे सिंह के समान बलशाली और अग्नि के समान तेजस्वी थे। दृढ़ता और उद्यमरूप पंखयुक्त उनका यशःरूपी हंस पृथ्वी-परिक्रमा से कभी विरत नहीं होता। रणक्षेत्र में वे जिस सहजता से धनुष का चिल्ला झुका देते थे उसे देखकर विपक्षी राजागण उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर सहज ही विनत हो जाते थे। आलान स्तम्भ से बंधी हस्तिनी की तरह उनके गुणों के लिए उनके बाहुरूप स्तम्भ से आबद्ध होकर लक्ष्मी निश्चला हो गई थी। (श्लोक १२-१६)
जयन्ती और शेषवती नामक उनकी दो पत्नियां थीं जो सौन्दर्य में पृथ्वी की अन्य स्त्रियों का अतिक्रम कर गयी थीं। राजा वसुन्धर का जीव पंचम देवलोक से च्युत होकर अग्रमहिषी जयन्ती के गर्भ में अवतरित हुआ। बलराम के जन्मसूचक उन्होंने चार महास्वप्न देखे और यथा समय एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। पृथ्वी को आनन्दित करने के कारण उसका नाम रखा गया नन्दन ।
(श्लोक १७-१९) ___ ललितमित्र का जीव सौधर्म देवलोक से च्युत होकर शेषवती के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । उसने वासुदेव के जन्मसूचक सात महास्वप्न देखे । पुत्र का जन्म होने पर उसका नाम रखा गया दत्त । छब्बीस धनुष दीर्घ और क्षीरोद और कालोद समुद्र की तरह गौर और कृष्णवर्णीय वे क्रमशः बड़े होकर यौवन को प्राप्त हुए । ताल और गरुड़ध्वज वे नील और पीत वस्त्र पहने उम्र में छोटे-बड़े होने पर