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१७०] हड्डियों से सीपमय कर उन्होंने पश्चिम दिशा को भी जीत लिया। मन्दार पर्वत की तरह शक्तिशाली उन्होंने सहज ही वैताढय पर्वत के गुहा द्वार को खोलकर उत्तर भारत में प्रवेश किया और हस्ती जैसे इक्षु क्षेत्र को दलित मथित कर डालता है उसी भांति म्लेच्छों के रक्त से पृथ्वी रंजित कर उन्हें दलित-मथित कर डाला । चक्रवर्ती सुभूम ने मेघनाद को वैताढय पर्वत की उभय श्रेणियों का आधिपत्य दिया।
(श्लोक १०१-१०७) __साठ हजार वर्षों की आयुष्य वाले सुभूम ने चारों ओर हत्या और रक्तपात कर छह खण्ड पृथ्वी को जीत लिया। महारम्भ और रौद्र ध्यान के लिए सुभूम यथासमय मृत्यु को प्राप्त हुआ और सप्तम नरक में गया। पांच हजार वर्ष राजकुमार रूप में, पांच हजार वर्ष राजा रूप में, पांच सौ वर्ष दिग्विजय में और पांच सौ वर्ष कम पचास हजार वर्ष चक्रवर्ती के रूप में उन्होंने शासन किया।
__ (श्लोक १०८-११०) चतुर्थ सर्ग समाप्त
पंचम सर्ग भगवान अरनाथ के समय सप्तम दत्त वासुदेव, नन्दन बलदेव और प्रह्लाद प्रतिवासुदेव हुए। उनका परिचय यहां विवृत करता
(श्लोक १) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पृथ्वी की अलङ्कार तुल्या सुसीमा नामक एक नगरी थी। वहां वसुन्धर नामक एक राजा राज्य करते थे। दीर्घ काल तक राज्य कर उन्होंने मुनि सुधर्म से दीक्षा ग्रहण कर ली और मृत्यु के बाद ब्रह्म देवलोक में उत्पन्न हुए।
(श्लोक २-३) जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में शीलपुर नामक नगरी में मन्दरधीर नामक एक राजा थे। उनका ललितमित्र नामक एक पुत्र था। वह शक्तिशाली दीर्घबाहु, गुण रूप रत्नों का आकर और मित्ररूप कमलों के लिए सूर्यरूप था। राजा के मन्त्री खल ने उसे 'दुविनीत' कहकर राजा को उससे अप्रसन्न कर दिया और उसके अनुज को युवराज पद पर अभिषिक्त किया। इस अपमान से संसार