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नदियां जिस प्रकार समुद्र की अनुगामिनी होती है उसी प्रकार सभी रानियां उनकी अनुगामिनी थीं। रोहण रत्न की तरह वे समस्न प्रकार के सदाचरों के उत्स थे। बुद्धिमान वे जिस प्रकार ज्ञानविज्ञान के ज्ञाता थे उसी प्रकार समस्त अस्त्र विद्या के भी पारंगत । वे पृथ्वी से कर ग्रहण करते थे; किन्तु जो असमर्थ थे, दलित थे उनमें बांट देते थे। विवेकवान वे यश के आकांक्षी थे; किन्तु अर्थ के नहीं। अर्य के विषय में उदार होने पर भी राज्य सीमा के संरक्षक के रूप में वे उदार नहीं थे। धर्म के अनुगत होने पर भी द्यूत के वे अनुगत नहीं थे।
(श्लोक २८-३१) इन्द्र के शची-सी उनकी पत्नी का नाम था प्रभावती। उसका मुखमण्डल चन्द्र को भी लज्जित करता था। वे धरती की अलङ्काररूपा थीं। उनका अलङ्कार था धर्म । केयूर अङ्गद आदि तो व्यवहार के लिए धारण करती थीं। अपने निष्कलङ्क चरित्र से पृथ्वी को पवित्र कर, आनन्दकन्द कर वे जीवन्त तीर्थ रूप में परिगणित होती । चन्द्र जिस प्रकार दाक्षायणी के साथ सुख भोग करता है उसी प्रकार राजा कुम्भ प्रियकारिणी प्रभावती के साथ सुख भोग करते।
(श्लोक ३२-३५) वैजयन्त विमान की आयुष्य पूर्ण होने पर महाबल का जीव वहां से च्युत होकर फाल्गुन शुक्ला चतुर्थी के दिन चन्द्र जब अश्विनी नक्षत्र में अवस्थित था प्रभावती की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ । प्रभावती ने तीर्थङ्कर के जन्म-सूचक चौदह महास्वप्न देखे । गर्भ धारण के तीसरे महीने में पञ्चवर्णीय और सुगन्धित पुष्पों की शय्या पर सोने का उन्हें दोहद उत्पन्न हुआ। वाण व्यन्तर देवों ने उस दोहद को पूर्ण किया। गर्भकाल पूर्ण होने पर अग्रहायण शुक्ला एकादशी के दिन चन्द्र जब अश्विनी नक्षत्र में अवस्थित था तब पूर्वजन्म कृत मायाचार के कारण कन्या रूप में १९वें तीर्थङ्कर का जन्म हुआ। कुम्भलांछन और सर्व सुलक्षणों से युक्त उनके देह का वर्ण गाढ़ा नीला था। दिककुमारियों ने आकर उनका जन्म कृत्य सम्पन्न किया। इन्द्रों ने उन्हें मेरुपर्वत पर ले जाकर स्थानाभिषेक किया। शक ने उनकी देह पर दिव्य विलेपन कर पूजा की। अन्तत: आरती कर इस प्रकार स्तुति की :
(श्लोक ३६-४२) 'हे त्रिलोकपति, हे तीन गुण के धारक, हे उन्नीसवें तीर्थङ्कर,