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कर वे अष्टम स्वर्ग महाशुक्र में देव रूप में उत्पन्न हुए। (श्लोक २-५)
भगवान ऋषभ के कुरू नामक एक पुत्र था। उनके हस्ती नामक एक पुत्र हुआ। जिसके नाम पर हस्तिनापुर नगरी का नामकरण हुआ था। यह नगरी तीर्थङ्करों और चक्रवतियों का निवास रूप थी। इसी वंश के दीर्घबाह अनन्तवीर्य तब वहां राज्य करते थे। उस समय में बसन्तपुर नामक नगर में अग्निक नामक एक युवक रहता था। उनके वंश में कोई भी जीवित नहीं था। एक दिन वह इस स्थान का परित्याग कर अकेले घमते हुए एक आश्रम में पहंचा। आश्रम के कुलपति ने उसे अपने पुत्र की तरह उस आश्रम में स्थान दिया । कठिन तपस्या कर अग्नि सदृश अपने दुःसह तेज के कारण वह पृथ्वी पर जमदग्नि नाम से विख्यात हुआ।
(श्लोक ६-११) वैश्वानर नामक देव जो पूर्व जन्म में श्रावक था और धन्वन्तरी नामक देव जो पूर्व जन्म में ब्राह्मण तापसों का भक्त था दोनों में विवाद छिड़ गया। उनमें पहले ने कहा - 'अर्हत् धर्म ही श्रेष्ठ है।' दूसरे ने कहा-'तापस धर्म ही श्रेष्ठ है।' वैश्वानर ने कहा-'तुम यदि किसी नवदीक्षित निर्ग्रन्थ की भी परीक्षा लो तो वह उस परीक्षा में उत्तीर्ण होगा और यदि किसी प्रौढ़ तापस की भी परीक्षा लो तो वह उस परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकेगा। जिसमें अधिक गुण होते हैं वही श्रेष्ठ होता है ।' दोनों एकमत होकर पहले निम्रन्थ साधक की परीक्षा लेने गए। (श्लोक १२-१४)
उस समय मिथिला नगरी के राजा पद्मरथ जो कि भावमुनि थे पदविहार करते हुए वासुपूज्य स्वामी से दीक्षित होने के लिए चम्पा नगरी की ओर जा रहे थे। दोनों देव उनके निकट गए एवं उनके सम्मुख आहार पानी रखकर उन्हें आहार ग्रहण करने को कहा। यद्यपि पद्मरथ क्षुधार्थ और तृष्णार्थ थे फिर भी उसे साधु के लेने योग्य न समझकर ग्रहण नहीं किया। कारण दृढ़संकल्पी कभी सत्य से विचलित नहीं होता। तब देवों ने राह में कंकरकांटे बिछाकर राह को छरे की धार की तरह कर दिया जिससे उनके कोमल पैर से चलना कठिन हो गया फिर भी पद्मरथ ने अविचलित भाव से इस प्रकार पथ अतिक्रम किया मानों वे रूई बिछाकर पथ पर चल रहे हों जबकि उनके पैर लहूलुहान हो गए