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उसी चक्र को धारण कर ले यह हुआ तेरा अन्त'-कहते हुए चक्र बलि पर निक्षेप किया। चक्र के आघात से बलि का मस्तक कट गया।
(श्लोक २५-४०) अग्रज आनन्द के साथ पुण्डरीक ने दिग्विजय के लिए प्रयाण किया और शत्रु राजाओं को पराजित कर अर्द्धचक्री के रूप में सिंहासन पर आरूढ़ हुए। वासुदेव ने तराजू की भांति सहज ही कोटिशिला को उठा लिया । अपनी आयुष्य के ६५ हजार वर्ष अतिक्रान्त होने पर उनकी मृत्यु हो गई। अपने क्रूर कर्मों के कारण मरकर वे छठी नरक में गए। पुण्डरीक ने २५० वर्ष युवराज रूप में, २५० वर्ष राजा रूप में, ६० वर्ष दिग्विजय में और ६४४४० वर्ष अर्द्धचक्री रूप में व्यतीत किए।
(श्लोक ४१-४५) आनन्द का आयुष्य ८५ हजार वर्षों का था। भाई की मृत्यु से एकाकी और आनन्दहीन हो जाने से उनके लिए दिन काटने मुश्किल हो गए। अतः वे संसार से विरक्त होकर मुनि सुमित्र से दीक्षित हो गए। शुद्धतापूर्वक चारित्र पालन करते हुए और ज्ञान की आराधना कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और आनन्द के निवास रूप अक्षय सिद्धि पद के अधिकारी बने। (श्लोक ४६-४७)
तृतीय सर्ग समाप्त
चतुर्थ सर्ग तीर्थङ्कर अर के शासनकाल में उत्पन्न अष्टम चक्रवर्ती सुभूम का जीवनवृत्त अब वर्णन करता हूं।
(श्लोक १) इसी भरत क्षेत्र में विशाल नामक नगरी में भूपाल नामक एक राजा राज्य करते थे। वे महाशक्तिशाली थे और क्षत्रिय व्रत का पालन करते थे। एक बार उनके शत्रुओं ने एकत्रित होकर सम्मिलित रूप से उन पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया । कारण, समूह की शक्ति असीम होती है । शत्रुओं द्वारा पराजित हो जाने से खिन्न होकर उन्होंने मुनि सम्भूत से दीक्षा ग्रहण कर ली। घोर तपस्या करके उन्होंने यह निदान किया कि इस तपस्या के फलस्वरूप मुझे कामभोग की सर्वोत्तम वस्तु और सैन्यनिधि प्राप्त हो । इस निदान की आलोचना न करते हुए उपवास में मृत्यु वरण