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प्रियमित्र का जीव चतुर्थ स्वर्ग माहेन्द्र से च्यवकर रानी लक्ष्मीवती के गर्भ में उत्पन्न हुआ । वासुदेव के जन्मसूचक सात स्वप्नों को देखकर वह आनन्दमना बनी गर्भ का पोषण करती रही । यथा समय उसने कृष्णवर्णीय एक पुत्र को जन्म दिया । २९ धनुष दीर्घ नव जातक का नाम रखा गया पुरुष पुण्डरिक | ( श्लोक २२-२४ )
गरुड़ध्वज और तालध्वज दोनों भाई नील और पीत वस्त्र धारण कर पिता की इच्छा की तरह बड़े होने लगे । वे सहज रूप से चलते, फिर भी पृथ्वी कांप उठती । जब वे छोटे थे तभी धात्रियाँ उन्हें उठा नहीं पाती थीं । क्रमशः उन्होंने नयनाभिराम यौवन प्राप्त किया और समस्त कलाओं में पारंगत हो गए । राजेन्द्रपुर के राजा उपेन्द्रसेन ने अपनी कन्या पद्मावती का विवाह वासुदेव के साथ कर दिया । प्रतिवासुदेव बलि यह ज्ञात कर कि पद्मावती अनंगपत्नी रति से भी अधिक सुन्दरी है उसका अपहरण करने आया । आनन्द और पुण्डरीक शक्ति मदमत्त बलि की शक्ति की उपेक्षा कर उसके सम्मुखीन हुए। तभी उन्हें अस्त्र-शस्त्र, सारंग धनुष, हल आदि देवताओं से इस प्रकार तत्क्षण प्राप्त हुए मानों उनकी आयुध शाला में सुरक्षित रखे हुए हों । बलि की अधिक शक्तिशाली सैन्य द्वारा अपनी सेना को पराजित होते देखकर वे क्रुद्ध होकर रथ पर चढ़े और आनन्दित हृदय से युद्ध में अग्रसर हुए । वीरों के मन में युद्ध क्षेत्र आनन्द ही उत्पन्न करता है । पुण्डरीक ने पांचजन्य शंख बजाया । उस शंख के महानाद से भयभीत बनी बलि की सेना समुद्र से समुद्र-दानवों की पलायन की भांति उस युद्धक्षेत्र से पलायन कर गई । तदुपरान्त उन्होंने अपने शारंग धनुष पर टङ्कार किया । इससे अवशेष सेना भी टङ्कार के निर्घोष से भीत होकर रण-स्थल से भाग छूटी । तब बलि जिस प्रकार मेघ वारिवर्षण करता है उसी प्रकार वाणों की वर्षा कर युद्ध में अग्रसर हुआ । पुण्डरीक बलि के बाणों को काट डालता, बलि पुण्डरीक के । अपने बाणों के नष्ट हो जाने से बलि ने क्रुद्ध होकर चक्र धारण किया और 'यह आ गया तेरा अन्त' – कहता हुआ उस चक्र को घुमाकर वासुदेव पुण्डरीक पर निक्षेप किया । चत्र के नाभि स्पर्श करने के कारण पुण्डरीक क्षणभर के लिए बेहोश हो गए । होश आते ही वे उठ खड़े हुए और