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दिनों तक एक दिन उपवास और एक दिन पारना करना होता है । इस कठिन तपश्चर्या के पश्चात् जब वह भिक्षाचर्या के लिए जा रही थी तब राह में गणिका मदनमंजरी के लिए दो राजपुत्रों को युद्ध करते देखा। यह देखकर पद्मा ने मन ही मन सोचा वास्तव में यह रूपवती है जिसके लिए दोनों राजपुत्र युद्ध कर रहे हैं। मेरी तपस्या का यदि कुछ फल हो तो मैं भी आगामी जन्म में ऐसा ही रूप प्राप्त करूं। ऐसा निदान करके उसकी बिना शुद्धि किए वह मृत्यु को प्राप्त हो गई और सौधर्म कल्प में विपुल समृद्धिशाली देवी के रूप में उत्पन्न हुई।
(श्लोक ११२-११८) __ 'कनकधी भव भ्रमण करती हुई दानादि शुभ योग के फलस्वरूप तुम मणिकुण्डल विद्याधरराज के रूप में जन्मे हो। कनकलता और पद्मलता भी भव भ्रमण करती हुई दानादि देने के कारण जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में रत्नपुर नरेश श्रीसेन के पुत्र इन्दुसेन व विन्दुसेन के रूप में जन्मे हैं। इसी भरत क्षेत्र के कौशाम्बी नगर में पद्मा सौधर्म देवलोक से च्यव कर गणिका अनन्तमतिका के रूप में जन्मी है। इन्दुसेन व बिन्दुसेन अभी रत्नपुर के देवरमण उद्यान में अनन्तमतिका के लिए परस्पर युद्ध कर रहे हैं। (श्लोक ११९-१२३)
'पूर्व जन्म की कथा अवगत कर स्नेहवशतः पूर्व जन्म की कथा विवृत कर तुम्हें युद्ध से निवृत करने के लिए मैं यहाँ आया हूं। पूर्व जन्म में मैं तुम्हारी माँ थी और अनन्तमतिका थी तुम्हारी बहन । अज्ञान वश संसार में यही सब घटित होता रहता है। पूर्व जन्म के माता-पिता भाई-बहन यहाँ तक कि शत्रु को भी स्मृति पर पड़े आवरण के कारण पहचाना नहीं जाता। मकड़ा जैसे जाल में अटका रहता है आत्मा भी वैसे ही रागद्वष आदि के जाल में अटक कर बार-बार जन्म ग्रहण करती है। अतः रागद्वेष का परित्याग कर मुक्ति का द्वार रूप दीक्षा ग्रहण करो।' (श्लोक १२४-१२८)
___'यह सुनकर वे बोले-'हमें धिक्कार है ! अज्ञान के कारण उन्मत्त पशु की भाँति हम अपनी बहिन को ही भोगने जा रहे थे। पूर्व जन्म में आप हमारी माँ थीं; किन्तु इस जन्म में आप हमारे गुरु हो गए हैं। कारण ज्ञान दान कर आपने हमें कुकर्म करने से रोका है।
(श्लोक १२९-१३०) यह कहकर अस्त्र परित्याग कर उन्होंने एक साथ चार हजार