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देवों के द्वाररक्षी की तरह हस्तोत्तोलित कर उन्हें युद्ध करने से रोक कर बोले, 'हे राजकुमारो, उसे पत्नी रूप में पाने की कामना कर तुम युद्ध क्यों कर रहे हो ? तुम लोग नहीं जानते वह तुम्हारी बहन है । मैं उसकी कथा सुनाता हूं । सुनो( श्लोक ९४ - ९६ ) 'इस जम्बूद्वीप के महाविदेह में सीता नदी के उत्तर में पुष्कलावती नामक एक विजय है । वहाँ पृथ्वी के मुकुट-सा विद्याधरों के निवास रूप वैताढ्य नामक एक उत्तुंग पर्वत है । पर्वत की उत्तरी श्रेणी पर आदित्याभ नामक एक नगर है । वहाँ कुण्डलेन्द्र ( शेष नाग ) की तरह एक वैभवशाली सकुण्डलीन नामक राजा राज्य करते थे। उनकी अजितसेना नामक एक पतिव्रता पत्नी थी । मैं उनका पुत्र हूं । मेरा नाम मणिकुण्डलीन है । ( श्लोक ९७ - १०० )
'एक दिन मैं वहाँ से जिनोपासना के लिए गरुड़ की तरह आकाश पथ से पुण्डरीकिणी नगर में गया । वहाँ जिनेश्वर अमितयश की उपासना कर युक्त होकर उनका प्रवचन सुना । प्रवचन के अन्त में मैंने उनसे पूछा, भगवन्, किस कर्म के कारण मैंने विद्याधर रूप में जन्म ग्रहण किया ? उन्होंने कहा सुनो- (श्लोक १०१-१०३) 'पुष्करवर द्वीप के पश्चिम द्वीपार्द्ध में शीतोदा नदी के दक्षिण तट पर सलिलावती विजय में पृथ्वी की स्वस्तिक की भाँति वीतशोका नामक एक नगरी है । वहाँ के अधिवासी शोक हीन होने के कारण उस नगरी का यह नाम है । किसी समय वहां रत्नध्वज नामक एक चक्रवर्ती थे । रूप में वे मीनध्वज (कामदेव ) और शक्ति में कुलिशध्वज (इन्द्र) थे । उनकी चारित्र अलङ्कार से भूषित दो रानियाँ थी । एक का नाम कनकश्री और दूसरी का नाम हेमामालिनी था । बुद्धि और श्री की भाँति कनकश्री के दो कन्याएँ हुईं। उनके जन्म के पूर्व उसने अपनी क्रोड़ में स्थापित कल्पवृक्ष के दो पल्लव देखे । जन्मोत्सव समारोह में माता-पिता ने उनके नाम कनकलता और पद्मलता रखा । वे कला शिक्षा प्राप्त करने के साथसाथ यौवन को प्राप्त होती हुई ऐसी लगी मानो त्रिलोक की श्री वहाँ एकत्र हो गई है । ( श्लोक १०४ - १११ )
'पद्मा साध्वी अजितसेना के सम्पर्क में आकर संसार से विरक्त हो गई अतः उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली । एक बार गुरुनी जी का आदेश लेकर उसने कर्म चतुर्थ उपवास रूप तपस्या की । इनमें ६३