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प्रासाद में रहे। फिर जैसा होगा किया जाएगा।' कपिल इससे सहमत हो गया। राजा ने सत्यभामा को रानी के पास भेज दिया। वहाँ वह नाना प्रकार की तपस्याएँ करने लगी। (श्लोक ७४-८०)
कौशाम्बी में तब बल नामक एक पराक्रान्त राजा राज्य करता था। उसकी महारानी श्रीमती के गर्भ से उत्पन्न श्रीकान्ता नामक एक सुन्दर कन्या थी। उसके स्वेच्छा से श्रीसेन के पुत्र इन्दुसेन के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट करने पर बल ने उसे रत्नालङ्कारों से विभूषित कर उपहारों सहित श्रीसेन की सभा में भेजा। श्रीकान्ता के साथ आई हुई गणिका अनन्तमतिका के रूप पर मुग्ध होकर इन्दुसेन और बिन्दुसेन वह मेरी है वह मेरी है कहते हए झगड़ने लगे। यहाँ तक कि द्वन्द्व युद्ध के लिए वे देवरमण उद्यान में गए। वहाँ से दोनों सशस्त्र उस अलौकिक सौन्दर्य भोग के लिए वृषभ की तरह युद्ध करने लगे।
(श्लोक ८१.८५) राजा श्रीसेन उन्हें युद्ध करने से रोक नहीं सके। वे सर्वदा सामनीति को ही श्रेष्ठ मानते आ रहे थे किन्तु; उद्धत को बल द्वारा ही वशीभूत किया जा सकता है । पुत्रों का यह व्यवहार जब लोकचर्चा का विषय बन गया तब उन्होंने अभिनन्दिता और शिखिनन्दिता के साथ परामर्श कर "अब मेरे जाने का समय आ गया' कहकर तालपुट विष मिले कमल को सूघा । सूघने के साथ ही उनकी मृत्यु हो गई। दोनों रानियों ने भी तब विषमय कमल को सकर मृत्यू को वरण कर लिया। पति से रहित होने पर अभिजात कुल सम्पन्न नारियाँ जीवित नहीं रहती। सत्यभामा ने देखा कि उसने जिनका आश्रय ग्रहण किया था जब वे ही नहीं रहे तब कपिल की
ओर से अनिष्ट आशंका कर उसने भी विषकमल सूघ कर मृत्यु को वरण कर लिया।
(श्लोक ८६-९०) इस भाँति ये चारों मरकर जम्बूद्वीप के उत्तर कुरु देश में युगलिया रूप में उत्पन्न हुए। श्रीसेन और अभिनन्दिता, शिखिनन्दिता और सत्यभामा अब वहाँ पति-पत्नी के रूप में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। उनका आयुष्य था तीन पल्योपम का एवं देह तीन धनुष ऊँची थी।
(श्लोक ९१-९३) इन्दुसेन और बिन्दुसेन जब युद्ध कर रहे थे तब एक विद्याधरराज विमान द्वारा वहाँ आए। वे दोनों के मध्य खड़े होकर अनुकूल